Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

हनुमानजी का स्वभाव अपने जीवन में ले आओ !

23 अप्रैल (चैत्र मास की पूर्णिमा) को श्री हनुमानजी का प्राकट्य दिवस है । इन अंजनीनंदन के सद्गुणों के बारे में पूज्य बापूजी के सत्संग-वचनामृत में आता है :
हनुमानजी के प्राकट्य दिवस पर उनके स्वभाव को समझो और कुछ-न-कुछ उनका स्वभाव अपने हृदय में लाओ । दास्य भक्ति में पूर्ण, संयम में अद्भुत, अष्टसिद्धि-नवनिधि के धनी होने पर भी पवनसुत ने आत्मज्ञान के लिए श्रीरामजी की बिनशर्ती शरणागति ली और तत्परता से सेवा में लगे । तभी कहते हैं :
राम लक्ष्मण जानकी, जय बोलो हनुमान की ।
हनुमानजी सेवा में तो निपुण हैं, मंत्रदीक्षा देने में भी निपुण हैं । ब्रह्मचर्य में भी अद्भुत और वैराग्य में ऐसे कि सुवर्ण पर्वत (मैनाक पर्वत) का त्याग करने का सामर्थ्य ! लंका को ऊपर-ऊपर से देख के बोले : ‘‘यह तो विषय-विलास, भोग है । वैराग्यवान के लिए भोग तुच्छ हैं, जलाने के योग्य हैं ।’’ और उन्होंने लंका को जला के ही दम लिया ।
औरों को मान देने की कुशलता
सुवर्ण पर्वत का त्याग किया । फिर सुरसा आ गयी, बोली : ‘‘आज देवताओं ने मुझे भोजन दिया है । मैं तुम्हें खा जाऊँगी ।’’
जैसे-जैसे सुरसा मुख का विस्तार बढ़ाती है हनुमानजी उससे दूना रूप दिखलाते हैं । पर जब उसने 100 योजन मुँह फाड़ा तो वे उससे दुगने हो सकते थे गरिमा सिद्धि से परंतु सिद्धियाँ अहंकार दिखाने के लिए नहीं होतीं । अहंकारविमूढात्मा... ‘मैं लंकापति रावण... !’, ‘मैं हिरण्यकशिपु... !’ ऐसा अहंकार व्यक्ति को कहीं का नहीं छोड़ता । देखो हनुमानजी की कुशलता ! वे नन्हे हो गये और उसके मुँह में घूम के भी आये उसको पता तक नहीं चला । बाहर निकल के झुककर प्रणाम किया, बोले : ‘‘मैंने आपके मुँह की प्रदक्षिणा कर ली ।’’
बदन पइठि पुनि बाहेर आवा ।
मागा बिदा ताहि सिरु नावा ।।
(रामचरित. सुं.कां. : 1.6)
कैसी सरलता है ! हकीकत में हनुमानजी की जीत हुई तो उनको फूलना चाहिए पर फूले नहीं, जिसको हराया उसको हाथ जोड़ते हैं, नम्रता दिखाते हैं । आप अमानी रहकर औरों को मान देने की हनुमानजी की कुशलता अपने जीवन में भी आ जाय, मैं चाहता हूँ मेरे साधक इस प्रकार के हो जायें ।
हारने के बाद वह तो उदास हो जाती परंतु हनुमानजी स्वयं दासत्व दिखाकर उसके अंतःकरण की रक्षा करते हैं ।
वैराग्य का मुक्का
लंका में सूक्ष्म हो के जा रहे थे । लंकिनी ने देखा, बोली : ‘‘ऐ ! कहाँ जा रहे हो ? तुम चोर हो । छुप के जाते हैं चोर ।’’
हनुमानजी बोले : ‘‘मैं चोर हूँ ? चोर तो तेरा स्वामी है जो सीताजी को चुरा के लाया है । मैं चोर नहीं, अपने स्वामी का कार्य करने के लिए सिकुड़ के जाना पड़े तो इसमें क्या अनुचित है ?’’
‘‘मैं तुम्हें खा जाऊँगी ।’’
सोचा कि ‘इसको मुक्का मारने की आवश्यकता है ।’ वे फिर बड़े बन गये और मुक्का मारा ।
वैराग्य का मुक्का लगा और सत्संग मिला तो लंकिनी का हृदय परिवर्तित हुआ ।
ऊँची समझ के धनी
हनुमानजी संयम, सहजता, सरलता, प्रसंगोचित वाणी, अणिमा, गरिमा, लघिमा सिद्धियों के धनी हैं फिर भी सबको उनका प्रदर्शन नहीं करने बैठते । सबके साथ एक-सा आचरण नहीं करते, जो जैसा है उससे उस तरीके से पेश आते हैं । सीताजी के आगे हनुमानजी नन्हे हो के जाते हैं फिर थोड़े-थोड़े बड़े होते हैं । सीताजी पूछती हैं : ‘‘तुम कौन हो ? तुम्हारा छोटा स्वरूप है कि बड़ा स्वरूप ?’’
‘‘मैया ! यह सब बड़प्पन मेरे प्रभु श्रीराम का है । दासोऽहम्...’’
सीताजी बड़ी प्रसन्न हुईं : ‘‘वत्स !...’’ पुत्र कह दिया तो वे रोमांचित हो गये । सीताजी को बहुत ऊँची सद्भावना से देखते हैं, रामजी को भी ऐसे ही देखते हैं ।
वाहवाही से सदा सावधान
मानयोग्य कर्म करो पर मुझे मान मिले, मेरी वाहवाही हो इस फंदे में मत फँसना । वाहवाही की वासना नहीं करो ।
मान पुड़ी है जहर की, खाये सो मर जाय ।
मान मिलता है तो हनुमानजी की नाईं ‘निर्मानमोहा...’ रहना बेटे ! वाहवाही के लालच से वे सावधान रहते थे । लंका-दहन और सीताजी की सुध लेकर आये तो रामजी बड़े प्रसन्न हुए, उनकी खूब-खूब प्रशंसा की तो हनुमानजी सूखे बाँस की नाईं रामजी के चरणों में गिर पड़े, बोले : ‘‘प्रभु ! आप भी मेरी सराहना करोगे तो मैं कहाँ जाऊँगा ! रक्षमाम् ! रक्षमाम् !!’’
वाहवाही के घूँट उनको पसंद नहीं थे । रामजी उनको अपने हाथों से उठाते हैं पर उठते नहीं हैं ।
प्रभुदेव दया कर दो मुझ पर,
मुझे अपनी शरण में रहने दो ।
मुझे ज्ञान के सागर से स्वामी,
अब निर्मल गागर भरने दो ।।
रामजी बोले : ‘‘हनुमान ! पहले तुम मेरे हृदय का ध्यान करते थे, अब मेरे पैरों में आ गये ! उठो, उठो !...’’
‘‘नहीं प्रभु ! मैं यहीं ठीक हूँ ।’’
‘‘तुमको पता नहीं, पैर से हृदय ऊँचा होता है !’’
‘‘प्रभु ! नीचा-ऊँचा जिनको गिनना है वे गिनें, मुझे तो सब एक ही दिखता है । चरण भी आपके, हृदय भी आपका... सब एक ही तो है ! और उठूँगा तो खतरा हो सकता है । उठा के आप छोड़ दोगे । लेटा हूँ तो आपने हाथों से पकड़ा हुआ है ।’’
ज्ञान के धनी थे । ऐसे युक्तियुक्त वचन बोलते हैं कि रामजी को भी हँसी आ जाय ।
ज्ञानियों में भी अग्रणी, गुरुपद निभाने में भी अग्रणी, दास्यपद निभाने में भी अग्रणी, सेवकों में भी अग्रणी, बलवानों में भी अग्रणी, दंड देने में भी अग्रणी । संजीवनी बूटी लेने जा रहे थे, बीच में कालनेमि कपटमुनि बन के बैठ गया ‘राम-राम...’ करते हुए, तो बोले : ‘‘पूजा तो होनी चाहिए, आपको दक्षिणा तो मिलनी चाहिए ।’’
दक्षिणा में उसके सिर को पूँछ से लपेटकर पछाड़ दिया । हनुमानजी बुद्धिमानों में भी श्रेष्ठ हैं । संत तुलसीदासजी ने बड़ा उपकार किया, शर्त रख दी :
जै जै जै हनुमान गोसाईं ।
कृपा करहु गुरु देव की नाईं ।।
देवता जैसी कृपा नहीं करना कि जो माँगा सो दे दिया फिर उसका चाहे जो हो । नहीं, कृपा करो गुरुदेव की नाईं । गुरुदेव से जो माँगोगे वह नहीं देंगे, जिसमें तुम्हारा हित होगा घुमा-फिरा के वहाँ तक तुम्हें पहुँचायेंगे । मुझे मेरे गुरुदेव के कला-कौशल्य का पता है । ऐसे जो भी आत्मज्ञानी गुरु होते हैं वे ‘गुरु’ यानी बड़े महिमावान होते हैं !
REF: ISSUE375-RP-MARCH-2024