Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

संत - राष्ट्र के प्राणाधार

- पूज्य संत श्री आशारामजी बापू

कैवर्त राज्य का राजा था तोमराज । पड़ोसी राज्य से आये किसी व्यक्ति का कैवर्त में अपमान हो गया । वह अपने राज्य में जाकर बोला : ‘‘कैवर्त-सम्राट तोमराज के राज्य में हमारे राज्य के नागरिकों का अपमान हो रहा है ’’

राजा विश्वजित तक बात पहुँची । राजा ने कहा : ‘‘मेरे राज्य के झाड़ू लगानेवाले का भी कोई अपमान करेगा तो हम बर्दाश्त नहीं करेंगे । हमारे नागरिक हमारी शान हैं । नागरिक हैं तो राजा है । जब नागरिक का अपमान होता है तो राजा किस काम का ? जाओ सेनापति ! कैवर्त-सम्राट तोमराज के राज्य को घेरा डालो और उस राज्य को परास्त करने का दृढ़ निश्चय करो । जरूरत पड़ी तो मैं भी आ जाता हूँ ’’

सेनापति : ‘‘नहीं राजन् ! हम निपटा लेंगे ’’

राजा विश्वजित ने सोचा कि तोमराज को यूँ जीत लेंगे...कैवर्त-सम्राट था तो छोटा राजा लेकिन बड़े-में-बड़े जो परमात्मा हैं, उससे मिले हुए संत का भक्त था, शिष्य था । इसलिए विश्वजित को युद्ध जीतना भारी पड़ रहा था, युद्ध में कोई सफलता नहीं मिल रही थी । 1 दिन, 2 दिन, 3 दिन, 4 दिन बीते... बोले : ‘‘ये तो 1 घंटे के ग्राहक थे लेकिन 4-5 दिन हो गये और हमारी सेना मारी जा रही है ! आखिर क्या है ? कुछ भी करो, हमारे नागरिक के अपमान का बदला उस राज्य की मिट्टी पलीत करने से ही होगा ।’’

सैनिक और तो कुछ कर नहीं पाये लेकिन एक दिन कैवर्त-सम्राट के नागरिक, संत देवलाश्वजी विश्वजित के सैनिक-खेमों के पास से गुजरे तो विश्वजित के सैनिकों ने उनको जासूसी के गुनाह में पकड़ लिया । अब उन संत को तो पता भी नहीं था कि यहाँ से गुजरना है कि नहीं ! जासूस तो थे नहीं लेकिन विश्वजित ने सोचा, ‘शत्रु राज्य का नागरिक है न, और उसको हम जीत नहीं सकते हैं तो चलो, उनके एक आदमी को ही फाँसी देकर अपनी जलन निकालें ।वह गुस्से में बोला : ‘‘इनको फाँसी की सजा दी जायेगी !’’

नाम तो था विश्वजित लेकिन भीतर से क्रोध के आगे, द्वेष और अहंकार के आगे हारा हुआ था । विश्वजित तो वह है जो सत्संग के द्वारा विकारों को हरा दे, बाकी तो कई विश्वजित पैदा हो के मर गये ।

कैवर्त राज्य के लोगों ने सुना कि उनके संत देवलाश्वजी बंदी बनाये गये हैं और उनको फाँसी की सजा सुना दी गयी है । लोगों ने खाना-पीना छोड़ दिया । भगवान को पुकारने लगे : हे भगवान ! कुछ भी हो, तुम्हारे प्यारे संत, निर्दोष संत के साथ ऐसा अन्याय न हो !सम्राट के कान बात गयी । कैवर्त-सम्राट शांत हो गया और सोचने लगा कि अब क्या करें ?’

जब कोई बड़ी मुसीबत आये और अपने बलबूते से वह हटायी नहीं जा सके तो किसी-न-किसी बलवान की शरण लेनी चाहिए । सम्राट तो रजोगुणी होते हैं किंतु यह सम्राट सोचने लगा, ‘उनके देश के किसी नागरिक का अपमान हुआ तो वे हमारे देश पर चढ़ाई करते हैं और अब तो हमारे देश के संत को ही उन्होंने पकड़ लिया है । मेरे देश के संत निर्दोष हैं, वे लोग भले दोष मान लें जासूसी का । अब हम क्या करें प्रभु ?...’

एक सुबह एक अनजान व्यक्ति पहुँचा विश्वजित के राजदरबार में और बोला : ‘‘मैं पड़ोसी देश का संदेशा लाया हूँ, कैवर्त-सम्राट तोमराज का ’’

‘‘अच्छा ! वह तो छोटा-सा राज्य है, अभी तक लोहा ले रहा है । अब क्या उसने हार मान ली ?’’

‘‘नहीं, उन्होंने हार तो नहीं मानी और वे हारेंगे भी नहीं किंतु हमारे राज्य के संत को आपने बंदी बनाया है । सम्राट तोमराज ने कहा है कि 2 करोड़ स्वर्णमुद्राएँ ले लो और हमारे संत को रिहा कर दो ।’’

‘‘2 करोड़ ! एक व्यक्ति के लिए 2 करोड़ स्वर्णमुद्राएँ !’’

‘‘वे व्यक्ति नहीं हैं, विश्वात्मा हैं । परमात्मा से उनका मन जुड़ा हुआ है । उनकी वाणी से लोगों को शांति मिलती है । उनके दर्शन से लोग पुण्यात्मा हो जाते हैं । वे संत हैं ।’’

‘‘देवलाश्वजी संत हैं ? वे तो जासूसी के गुनाह में पकड़े गये हैं और शत्रु का जासूस चाहे संत हो, हम कैसे छोड़ सकते हैं ?’’

‘‘कैवर्त-सम्राट ने प्रार्थना भेजी है कि और जो भी कुछ आप शर्त रखें, हमें कबूल है । 2 करोड़ स्वर्णमुद्राएँ अगर कम लगें तो मैं अपना राज्य देने से भी चूकूँगा नहीं । हमारे देश के संत की हत्या हम बर्दाश्त नहीं करेंगे ।’’

विश्वजित की आँखें फटी रह गयीं : ‘‘आखिर तो उस संत में क्या है ?’’

‘‘वे संत हैं, उनके अज्ञान का अंत हो गया है । मैं शरीर हूँ और जन्मता-मरता हूँ’- यह संसारी लोग मानते हैं । मैं आत्मा हूँ, अजन्मा हूँ’- ऐसा ज्ञान उन्हें हुआ है । ऐसे पुरुष के दर्शन से समाज का पुण्य बढ़ता है और ऐसे पुरुष हैं तो हमारा छोटा-सा राज्य भी आपके इतने बड़े चक्रवर्ती राज्य से लोहा लेने में सफल हो रहा है । संत का आशीर्वाद, मार्गदर्शन, कृपाप्रसाद... वह तो हमारे कैवर्त-सम्राट तोमराज जानते हैं ।’’

‘‘क्या 2 करोड़ स्वर्णमुद्राएँ दे देंगे तोमराज ?’’  ‘‘हाँ ।’’

‘‘उसका प्रमाण क्या है ? तुम तो आगंतुक व्यक्ति हो, मैं कैसे विश्वास करूँ ?’’

उस आगंतुक ने अपना दायाँ हाथ सम्राट विश्वजित के नजदीक कर दिया । चमचमाती अँगूठी में लिखा था : कैवर्त-सम्राट तोमराज’ ! विश्वजित कूदकर नीचे उतरा और गले लगाया : ‘‘सम्राट तुम ! संत को रिहा कराने की भीख माँगने अपने प्राणों की बाजी लगाकर सुबह-सुबह अकेले, निहत्थे आये हो ! तुमने मेरी आँखें खोल दी हैं । अब युद्ध तो क्या चलेगा, तुम मुझे अपना मित्र बना लो । जिसके रक्षक संत हैं, उसका मित्र बनने से भी हमारा कल्याण होगा ।’’

हजारों सैनिकों की मृत्यु का अंत हुआ, खून की धाराओं का अंत हुआ और प्रेम का प्रसाद बहने लगा ।

मैं कैवर्त-सम्राट तोमराज को हजार-हजार बार धन्यवाद दूँगा । जिस कैवर्त राज्य के रखवाले संत हैं और जिस राजसत्ता को सँभालनेवाले तोमराज जैसे गुरुभक्त हैं, उस राज्य का बाल बाँका कौन कर सकता है ! उस दिन से दोनों पड़ोसी राज्य दूध-शक्कर की नाईं रहे ।

ऐसा ही एक दूसरा प्रसंग भी है । ईरानियों और तुर्कियों के बीच युद्ध चालू हुआ था । वे आपस में भिड़े तो ऐसे भिड़े कि कोई निर्णायक मोड़ नहीं आ रहा था । तुर्कियों को ईरानियों से लोहा लेना बड़ा भारी पड़ रहा था । इतने में ईरान के सूफी संत फरीदुद्दीन अत्तार युद्ध की जगह से गुजरे तो तुर्कियों ने उन्हें जासूसी के शक में पकड़ लिया । अब ईरान के संत हैं तो गुस्से में द्वेषपूर्ण निर्णय किया कि इन्हें मृत्युदंड दिया जायेगा, देशद्रोही आदमी हैं । ईरान के अमीरों ने सुना तो कहला के भेजा : ‘‘इन संत के वजन की बराबरी के हीरे-जवाहरात तोल के ले लो लेकिन हमारे देश के संत को हमारी आँखों से ओझल न करो ।’’

तुर्क-सुल्तान : ‘‘हूँह... !’’

फिर ईरान के शाह ने कहा : ‘‘हीरे-जवाहरात कम लगें तो यह पूरा ईरान का राज्य ले लो लेकिन हमारे देश के प्यारे संत को फाँसी मत दो ।’’

‘‘आखिर इनमें क्या है ? देखने में तो ये एक इन्सान दिखते हैं !’’

‘‘इन्सान तो दिखते हैं लेकिन रब से मिलानेवाले ये महापुरुष हैं । ये चले गये तो अँधेर हो जायेगा । ब्रह्मज्ञानी संत का आदर मानवता का आदर है, इन्सानियत का आदर है । मनुष्य के ज्ञान का आदर है, विकास का आदर है । ऐसे ब्रह्मज्ञानी संत धरती पर कभी-कभार होते हैं । मेरा ईरान का राज्य ले लो किंतु मेरे संत को रिहा कर दो ।’’

तुर्क-सुल्तान भी आखिर इन्सान था, बोला : ‘‘तुमने आज मेरी आँखें खोल दीं । संतों के वेश में खुदा से मिलानेवाले इन औलिया, फकीरों का तुम आदर करते हो तो मैं तुम्हारा राज्य लेकर इनको छोड़ूँ ! नहीं, आओ हम गले लगते हैं । इन संत की कृपा से हमारा वैर मिट गया ।’’

भाग होया गुरु संत मिलाया ।

प्रभ अविनाशी घर में पाया ।।

जितनी देर ब्रह्मज्ञानी संतों के चरणों में बैठते हैं और वचन सुनते हैं वह समय अमूल्य होता है । उसका पुण्य तौल नहीं सकते हैं ।

तीरथ नहाये एक फल, संत मिले फल चार ।

संत के दर्शन-सत्संग से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों फल फलित होने लगते हैं । उन्हीं संत से अगर हमको दीक्षा मिली तो वे हमारे सद्गुरु बन गये । तब तो उनके द्वारा हमको अनंत फल होता है, वह फल जिसका अंत न हो, नाश न हो ।

सद्गुरु मिले अनंत फल, कहत कबीर विचार ।।

पुण्य का फल सुख भोग के अंत हो जाता है, पाप का फल दुःख भोग के अंत हो जाता है पर संत के, सद्गुरु के दर्शन और सत्संग का फल न दुःख देकर अंत होता है न सुख देकर अंत होता है, वह तो अनंत से मिलाकर मुक्तात्मा बना देता है ।     

 

REF: ISSUE247-JULY-2013