Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

हे देवियो ! आप कैसी माँ बनना चाहेंगी ?

एक सत्संगी माँ अपने बालक को सीख देतीं कि ‘‘बेटा ! कभी किसीको न सताना । किसीके प्रति मन में भेदभाव न रखना । निर्धनों की सहायता करना । सबको अपना मान के सबसे स्नेह करना । भगवान तुमसे बड़े प्रसन्न रहेंगे ।’’ उस बालक ने माँ की सीख की गाँठ बाँध ली ।

एक दिन घर की नौकरानी का बालक भी उस बच्चे के पास खड़ा था तो माँ ने उसे दो मिठाइयाँ देकर कहा : ‘‘एक इस बालक को देना, दूसरी तुम खा लेना ।’’

माँ ने उसे जो दूसरी मिठाई दी, वह पहलेवाली से बड़ी थी । पर माँ के उस सपूत ने दूसरीवाली अपनी बड़ी मिठाई नौकरानी के बालक को दे दी और स्वयं छोटीवाली खायी । माँ ने यह देखा तो पूछा : ‘‘तुमने बड़ा टुकड़ा, जो तुम्हें खाने को दिया था, उसे क्यों दे दिया ?’’

बालक : ‘‘माँ ! आप ही तो कहती हैं : सब हमारे हैं, निर्धन बच्चों को भी अपने भाई-बंधु समझना, सबसे स्नेह करना ।तब यदि मैंने अपनी मिठाई उसे दे दी और उसकी वाली स्वयं खा ली तो इसमें हानि क्या है ?’’ बालक की बात से गद्गद हो माँ ने उसे हृदय से लगा लिया, बोलीं : ‘‘मेरे लाल ! तुमने अच्छा ही किया । सदैव इसी प्रकार सभीसे स्नेह करना, सबको अपना समझना । सबके रूप में एक ईश्वर ही तो है ! तुम अवश्य महान होओगे और सभी लोग तुम्हें प्यार-आदर देंगे । सज्जन आशीर्वाद देंगे । परमात्मा प्रसन्न होंगे ।’’

आगे चलकर यह एक देशभक्त एवं महान विद्वान न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानडे के नाम से सुप्रसिद्ध हुए, जो लोगों के बड़े स्नेह व आदर के पात्र थे ।

दूसरी ओर यह प्रसंग भी आपने पढ़ा-सुना होगा : एक माँ का बेटा विद्यालय जाता और किसीकी कलम चुरा लाता तो किसीका कुछ सामान । चोरी करने की बात पता चलने पर भी माँ बालक को रोकती-टोकती नहीं थी बल्कि कहती : ‘‘बेटा ! तू तो बड़ा चालाक है ।’’ माँ की ऐसी कुशिक्षाओं से बालक का स्वभाव बिगड़ता गया । वह बड़ा होकर बड़ी-बड़ी चोरियाँ करने लगा, लूटपाट, मार-काट व हत्याएँ भी करने लगा । समय पाकर वह राज्य का सबसे कुख्यात डाकू बना । आखिर वह एक दिन पकड़ा गया और उसे फाँसी की सजा सुनायी गयी । जब उससे अंतिम इच्छा पूछी गयी तो उसने कहा : ‘‘मेरी माँ को बुलाओ ।’’ वैसा किया गया ।

डाकू के हाथ बँधे थे । माँ को देखते ही उसने कहा : ‘‘माँ ! मैं तेरे कान में कुछ कहना चाहता हूँ, मेरे नजदीक आ ।’’

माँ उसके करीब गयी तो उसने माँ का कान ऐसा काटा कि कटा हुआ टुकड़ा उसके मुँह में आ गया, उसने उसे थूक दिया । माँ चिल्लायी । डाकू से ऐसा करने का कारण पूछा गया तो वह माँ को बोला : ‘‘माँ ! तेरी वजह से ही आज मैं फाँसी पर लटकने जा रहा हूँ । यदि तूने मुझे बचपन में ही चोरी करने पर शाबाशी दे के लाड़ लड़ाने के बजाय सही सीख दी होती और जरूरत पड़ने पर दो थप्पड़ भी लगा दिये होते तो मेरे ये हाल न होते और आज मैं एक सज्जन व्यक्ति होता ।’’ कुशिक्षा देनेवाली उस माँ का कान ही नहीं बल्कि समाज में नाक भी कट गयी ।

न्यायमूर्ति रानडे की माँ को धन्यवाद उस क्षण भी फलित हुआ और आज भी हो रहा है और आगे भी होता रहेगा जब-जब कोई पाठक यह प्रसंग पढ़ेगा । और उस लुटेरे की माँ की नाक उस दिन भी कटी और आज भी आपके-हमारे सामने कट रही है और आगे भी कटती रहेगी जब-जब कोई यह पढ़ेगा ।

हे देवियो ! आप कैसी माँ बनना चाहेंगी ? आप अपना बेटा कैसा देखना चाहेंगी ? देश को कैसा व्यक्तित्व देंगी - एक महापुरुष अथवा कोई डाकू-लुटेरा... ?

वस्तु या व्यक्ति एक-के-एक किंतु महत्त्व इसका है कि उसे संग और संस्कार कैसे मिलते हैं ।

धूल पानी का संग पाकर कीचड़ हो जाती है, पैरों तले रौंदी जाती है, दूसरों को गंदा कर देती है और दलदल में फँसा के विनष्ट कर देती है । और वही धूल संतों के चरणों को छू जाती है तो उसे अपने सिर पर धारण करने के लिए भगवान भी लालायित होकर संतों के पीछे-पीछे जाते हैं । भगवान उद्धवजी से कहते हैं :

मैं संतन के पीछे जाऊँ, जहाँ जहाँ संत सिधारे । 

चरणन रज निज अंग लगाऊँ, शोधूँ गात हमारे1 ।। (1. अपने अंग पवित्र करूँ)

उधो ! मोहे संत सदा अति प्यारे ।

उधो ! मोहे संत सदा अति प्यारे ।...

 

Ref: ISSUE313-JANUARY-2019