कार्तिक मास की बड़ी महिमा है । पद्म पुराण (उ. खं. : 120.23) में भगवान महादेवजी कार्तिकेयजी से कहते हैं : न कार्तिकसमो मासः... ‘कार्तिक के समान कोई मास नहीं है ।’
एक बार भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा ने श्रीकृष्ण से पूछा : ‘‘प्राणनाथ ! मैंने पूर्वजन्म में कौन-सा दान, तप अथवा व्रत किया था जिससे मैं मर्त्यलोक में जन्म लेकर भी मर्त्यभाव से ऊपर उठ गयी और मुझे आपकी प्रिय अर्धांगिनी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ?’’
श्रीकृष्ण ने कहा : ‘‘प्रिये ! हरिद्वार में वेद-वेदांगों के पारंगत देवशर्मा नामक एक धर्मात्मा ब्राह्मण रहते थे । उन्होंने अपनी पुत्री गुणवती का विवाह अपने शिष्य चन्द्र से कर दिया । एक दिन वे गुरु-शिष्य समिधा (हवन हेतु लकड़ी) लाने वन में गये । वहाँ एक भयंकर राक्षस ने उन्हें मार डाला ।
यह समाचार सुन गुणवती शोक से विलाप करने लगी । किसी तरह धीरे-धीरे उसने अपने को स्वस्थ किया । फिर वह सत्य, शौच (आंतर-बाह्य पवित्रता) आदि के पालन में तत्पर रहने लगी । उसने जीवनभर एकादशी और कार्तिक मास के व्रत का विधिपूर्वक पालन किया ।
प्रिये ! ये दोनों व्रत मुझे बहुत ही प्रिय हैं । ये पुत्र और सम्पत्ति के दाता तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं । धीरे-धीरे गुणवती की अवस्था अधिक होती गयी । उसके अंग शिथिल हो गये और ज्वर से भी पीड़ित रहने लगी लेकिन उसका गंगा-स्नान का नियम था । ऐसी अशक्तावस्था में भी वह किसी तरह स्नान के लिए गयी । ज्यों ही जल के भीतर उसने पैर रखा, त्यों ही शीत की पीड़ा से वह काँप उठी और वहीं पर गिर पड़ी तथा उसका शरीर छूट गया ।
तभी मेरे पार्षद आये और विमान में बैठाकर चँवर डुलाते हुए उसे वैकुंठ ले गये । हे प्रिये ! कार्तिक-व्रत के पुण्य और भगवद्-भक्ति से ही उसे मेरा सान्निध्य प्राप्त हुआ ।
हे देवी ! अब रहस्य की बात सुनो । देवताओं की प्रार्थना पर मैंने जब पृथ्वी पर अवतार धारण किया तो मेरे पार्षद भी मेरे साथ ही आये । तुम्हारे पिता देवशर्मा अब सत्राजित हुए हैं और तुम ही पूर्वजन्म की गुणवती हो । पूर्वजन्म में कार्तिक-व्रत के पुण्य से तुमने मेरी प्रसन्नता को बहुत बढ़ाया है । वहाँ तुमने मेरे मंदिर के द्वार पर जो तुलसी की वाटिका लगा रखी थी, इसीसे तुम्हारे आँगन में आज देव-उद्यान का कल्पवृक्ष शोभा पा रहा है । पूर्वजन्म के कार्तिक मास के दीपदान से ही तुम्हारे घर में स्थिर लक्ष्मी और ऐश्वर्य प्रतिष्ठित है । तुमने अपने व्रत आदि सभी कर्मों को भगवान को निवेदित (समर्पित) किया था, उसी पुण्य से तुम मेरी अर्धांगिनी हुई हो । मृत्युपर्यंत तुमने जो कार्तिक-व्रत का अनुष्ठान किया, उसके प्रभाव से तुम्हारा मुझसे कभी वियोग नहीं होगा । इसी प्रकार अन्य जो भी स्त्री-पुरुष कार्तिक व्रतपरायण होते हैं, वे मेरे समीप आते हैं ।’’
कार्तिक मास में पालनीय नियम
* कार्तिक मास में सूर्योदय से पूर्व स्नान करने का बड़ा महत्त्व है । सभीको सब पापों का निवारण करने के लिए कार्तिक-स्नान करना चाहिए । गृहस्थ पुरुष को तिल और आँवले का चूर्ण लगाकर स्नान करना चाहिए और संन्यासी को तुलसी के मूल की मिट्टी लगाकर स्नान करना चाहिए । (आँवला चूर्ण आश्रमों व समितियों के सेवाकेन्द्रों पर उपलब्ध है ।) द्वितीया, सप्तमी, नवमी, दशमी, त्रयोदशी और अमावस्या को आँवला चूर्ण तथा तिल के द्वारा स्नान निषिद्ध है ।
* कार्तिक में तुलसी-पौधे के रोपण का बड़ा महत्त्व है । निम्नलिखित मंत्र से तुलसी की प्रदक्षिणा और नमस्कार करना चाहिए :
देवैस्त्वं निर्मिता पूर्वमर्चितासि मुनीश्वरैः ।
नमो नमस्ते तुलसि पापं हर हरिप्रिये ।।
‘हे हरिप्रिया तुलसीदेवी ! पूर्वकाल में देवताओं ने आपको उत्पन्न किया और मुनीश्वरों ने आपकी पूजा की । आपको बार-बार नमस्कार है । आप मेरे पापों को हर लें ।’
* अन्नदान, गायों को ग्रास देना, भगवद्भक्तों का संग करना तथा दीपदान करना - ये कार्तिक-व्रती के मुख्य कर्म हैं । कार्तिक-व्रत करनेवाला निंदा का सर्वथा परित्याग कर दे । इस मास में किया गया सत्कर्मानुष्ठान अक्षय फलदायी होता है ।
* इस मास में दीपदान करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और महान श्री, सौभाग्य और सम्पत्ति की प्राप्ति होती है ।
* कार्तिक मास में भगवन्नाम-कीर्तन नित्य करना चाहिए । इस मास में गीता-पाठ के पुण्य की महिमा बताने की शक्ति मुझमें नहीं है ऐसा ब्रह्माजी ने कहा है ।
Ref: ISSUE297-September-2017