मुमुक्षा का उदय क्यों नहीं ?
मनुष्य-जन्म, जो बड़ा दुर्लभ था, आपको मिल गया है । यह वह साँचा है जिसमें परमात्मा समा जाता है । इसमें आपको वह शीशा मिला है जिसमें परब्रह्म-परमात्मा का प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है ।
मनुष्य-शरीर में भी श्रुति का वह सिद्धांत, वह रहस्य समझ में आना दुर्लभ है जो कर्म की सीमा के पार है, जो भोग की सीमा से परे है । यही समझ मुमुक्षा की जननी है ।
परंतु हो क्या रहा है ? ऐसा दुर्लभ मनुष्य-जीवन प्राप्त करके भी जीवन कर्म और भोग के सम्पादन में ही बीत रहा है । इनके सम्पादन में दुःख भी मिलता है, फिर भी इनके त्याग में रुचि नहीं होती । रुचि होती है अपने को बेहोश करने में, दूसरों से लड़ाई-झगड़ा करने में और अपना अहंकार बढ़ाने में । असत् में आस्था दृढ़ होती जा रही है तो फिर सत्यस्वरूप आत्मसुख का ग्रहण कैसे होगा ?
जिसकी बुद्धि मोहग्रस्त है वह तो फँसा है । बंदर ने छोटे मुँह के बर्तन में मूँगफली या गुड़ का ढेला लेने के लिए हाथ डाला किंतु जब मुट्ठी भर गयी तो बर्तन से हाथ निकलता ही नहीं ! वह पकड़ा गया है । अरे ओ मूढ़ मन ! एक चीज को पाने के लिए दुनिया में जाता है और इतना बंधन ! इतनी पराधीनता ! स्त्री-सुख, धन-सुख, परिवार-सुख - सबमें पराधीनता है । जिसको पराधीनता नहीं खलती, वह कैसे परम स्वतंत्र परमात्मा को पाने के लिए उद्योग करेगा ? उसमें मुमुक्षा का उदय ही नहीं होगा ।
जिसके लिए तुम एड़ी-चोटी का पसीना एक कर रहे हो वह सत्य है कि मृगतृष्णा ? क्या तुम बता सकते हो कि अनादि काल से अब तक जिन लाखों-करोड़ों लोगों ने वह चीज पायी, उसे भोगा, उसके मालिक बने, उनको शाश्वत सुख-शांति मिली ? नहीं मिली ! मानो लोगों को नशा चढ़ा है ! कर्म और भोग का नशा ! न शम्-शान्तिर्यया इति नशा - जिससे सच्ची सुख-शांति न मिले उसको कहते हैं नशा ! आप नित्य-शुद्ध-बुद्ध मुक्तात्मा होकर अपने को मरनेवाला, पापी-पुण्यात्मा समझते हैं, स्वाधीन होने पर भी पराधीन समझते हैं, मुक्त रहने पर भी बंधन में पड़े जा रहे हैं, और पड़े जा रहे हैं... यही नशा है ।
वेद कहता है : यदि तुमने इसी जीवन में सत्य को जान लिया, तब तो ठीक है परंतु यदि न जाना तो महान विनाश हुआ ।1 आपकी बुद्धि परमात्मा से एक होने के लिए मिली थी, वह नहीं हुई । आपकी कामना परमानंद से एक होने के लिए मिली थी, वह परमानंद आपने प्राप्त नहीं किया । आपका यह जीवन अजर-अमर होने की सीढ़ी था परंतु आपने अजर-अमर जीवन नहीं पाया ! यह तो मानो खुदकुशी हुई, आत्मघात हुआ । आपको अपना ही परिचय नहीं है कि ‘मैं कौन हूँ ?’ अपने-आपको ठीक-ठीक न जानना ही आत्मघात है । आप अपने को ही मार रहे हैं, दूसरे को नहीं मार रहे हैं क्योंकि आपने मिथ्या (परिवर्तनशील) को पकड़ रखा है; अथवा अब तो मिथ्या ने ही आपको पकड़ लिया है और आप उसे छोड़ नहीं पा रहे हैं !
जो परिवर्तनशील है उसको सच्चा समझ लिया और जो सच्चिदानंदस्वरूप आत्मा है उसको परे और पराया समझ लिया । इससे बढ़कर और क्या मूढ़ता होगी ?
बिना ज्ञान के मुक्ति नहीं
तब क्या करें ? वेद-शास्त्रों की पंक्ति-पंक्ति घोट डालें ? शास्त्रों के लच्छेदार प्रवचन करने की योग्यता प्राप्त कर लें ? वेदोक्त देवताओं की आराधना करके उनको सिद्ध कर लें ? सारा जीवन शास्त्र और लोक से सम्मत शुभ कर्मों में बिता दें ? सारा समय इष्ट देवता के भजन में व्यतीत करते रहें ? समाधि सिद्ध कर लें ? क्या उपाय करें कि असत् का ग्रहण छूटे, बुद्धि की मूढ़ता हटे, मुमुक्षा जगे और अंततः मोक्ष की प्राप्ति हो ?
श्री शंकराचार्य भगवान कहते हैं कि कुछ भी करो और चाहे जब तक करते रहो, जब तक आत्मा और ब्रह्म की एकता का बोध नहीं होता, तब तक सौ कल्पों में भी मोक्ष की सिद्धि नहीं हो सकती ।2 उपनिषदों का यही सिद्धांत है कि बिना ज्ञान के मुक्ति नहीं होती ।3 उसको जानकर ही मनुष्य मृत्यु का अतिक्रमण (मृत्यु को पार) कर जाता है । इसके लिए अन्य कोई रास्ता नहीं है ।4
Ref: ISSUE280-APRIL-2016