एक बार शहर के किसी विद्यालय के प्रधानाचार्य विद्यार्थियों को लेकर जंगल के एकांत गुरुकुल में गये । शहर के विद्यार्थियों ने देखा कि ‘बेचारे गुरुकुल के विद्यार्थी धरती पर सोते हैं, गायें चराते हैं, गायें दोहते हैं और गोबर के कंडे सुखाते हैं, लकड़ियाँ इकट्ठी करने जाते हैं... ।’ उन बच्चों ने कहा : ‘‘प्रधानाचार्यजी ! ये गरीबों, कंगालों के बच्चे हैं, लाचारों के बच्चे हैं जो गुरुकुल में पड़े हैं बेचारे !’’
आचार्य ने कहा : ‘‘ऐसा नहीं है । चलो, गुरुकुल के गुरुजी से मिलते हैं ।’’
बातचीत करते-करते प्रधानाचार्य और गुरुकुल के गुरुजी ने निर्णय किया कि गुरुकुल के विद्यार्थी और शहरी विद्यालय के विद्यार्थी आपस में चर्चा करें, विचार-विमर्श करें । चर्चा करते-करते शहर के विद्यार्थियों ने देखा कि ‘ये हर तरह से हमारे से आगे हैं । शरीर हमारे से सुदृढ़ हैं और शिष्टाचार, नम्रता में और दूसरे को मान देकर आप अमानी रहने में रामजी का गुण इनमें ज्यादा है । शारीरिक संगठन मजबूत है, बौद्धिक क्षमताएँ भी तगड़ी हैं, स्मरणशक्ति भी गजब की है तथा व्याख्यान पर अपना अधिकार भी है और इतना होने पर भी निरभिमानिता का बड़ा सद्गुण भी इनमें है । हर तरह से ये हमारे से बहुत आगे हैं ।’
शहर के विद्यार्थियों ने कहा : ‘‘कंगाल और गरीबों के बच्चे इतने आगे कैसे ?’’
प्रधानाचार्य ने कहा : ‘‘ये गरीबों और कंगालों के बच्चे नहीं हैं । ये दूरदर्शियों के बच्चे हैं, बुद्धिमानों, धनवानों के भी बच्चे हैं । वे दूरदर्शी जानते हैं कि विद्यार्थी-जीवन में विलासिता और सुविधाओं की भरमार देंगे तो बच्चे खोखले हो जायेंगे, विघ्न-बाधा और कष्टों में विद्याध्ययन करेंगे तो लड़के मजबूत होंगे, ऐसे महान बुद्धिमानों की संतान हैं जो गुरुकुल में रहते हैं ।’’
*RP-ISSUE283-JULY-2016