Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

आगे बढ़ने से रोकनेवाला शत्रु : अभिमान

विद्यार्थियों के उज्ज्वल भविष्य-निर्माण में अभिमान एक बहुत बड़ी बाधा है । यह विद्यार्थियों की योग्यताओं का नाश करनेवाला दुर्गुण है । मनुष्य में अहंकार का आना पतन का सूचक है । अभिमान नासमझी से उत्पन्न होता है और विचार करने से घड़ीभर भी टिक नहीं सकता ।

किसी विद्यार्थी को कक्षा में कोई चीज समझ में नहीं आयी हो तो वह अभिमान के कारण ही दूसरे से सहायता लेने में हिचकता है । संकोचवश वह शिक्षक से भी नहीं पूछता और परीक्षा में सटीक जवाब नहीं दे पाता । और कोई विद्यार्थी कड़ी मेहनत से पढ़ाई करता है एवं अच्छे अंक प्राप्त करता है तो छाती चौड़ी करता है कि उसके समान तीव्र बुद्धिवाला कोई अन्य छात्र नहीं है । यह भी अभिमान है । फलतः आगे चलकर इसी मिथ्याभिमान के कारण उसकी मेहनत में कमी आ जाती है और वह लक्ष्य से भटक जाता है । हर जगह अभिमान कर्ता को गिराता ही है ।

दोस्तों की सस्ती वाहवाही लूटने हेतु किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हो जाना, न चाहते हुए भी दोस्तों के दबाव और बहकावे में आ जाना, जोश में होश खोकर गलत काम कर बैठना - ये अभिमान के ही छद्म रूप हैं । ‘मुझमें अभिमान नहीं’ यह भी अभिमान है । यह बहुत ही सूक्ष्म होता है, इतना सूक्ष्म कि ईश्वर के बाद इसी का नम्बर है । इसके बहुत रूप हैं । अभिमान, अहंकार, मैं-मेरा, तू-तेरा ही तो पतनकारी वृत्तियाँ हैं । संत तुलसीदासजी कहते हैं :

मैं अरु मोर तोर तैं माया ।

जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया ।।

(श्री रामचरित. अर.कां. : 14.1)

अभिमान और अहंकार माया है, जिसके वशीभूत होकर जीव नष्ट हो जाता है । यही माया मानव-मन में शारीरिक सुख की तीव्र कामना पैदा करती है । इसी सुख को पाने के लिए एवं इसे पाने के मार्ग के विघ्नों को हटाने के लिए व्यक्ति कोई भी पापकर्म करने के लिए तैयार हो जाता है । इसलिए ‘श्री रामचरितमानस’ (उ.कां. : 73.3) में आता है :

सकल सोक दायक अभिमाना ।

समस्त दुःखों को देनेवाला अभिमान है ।

‘विदुर नीति’ में भी आता है कि ‘अभिमान सर्वस्व को नष्ट कर देता है ।’

जो बहुत घमंड करते हैं वे अपने ही घमंड के कारण गिरते हैं । इसलिए किसीको घमंड नहीं करना चाहिए । यही हार का, पतन का कारण है ।

भगवान सब कुछ सह लेते हैं पर भक्त का अहंकार नहीं । अहंकार न रावण का बचा न कंस का और न कौरवों का, न हिटलर न सिकंदर का बचा । संसार में कुछ भी अभिमान करने योग्य नहीं है क्योंकि जिस चीज का अभिमान किया जा रहा है उससे श्रेष्ठ चीज अनेक लोगों के पास है । अभिमान परमात्म-प्राप्ति के मार्ग को बंद कर देता है । यह आगे बढ़ने के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा है । अतः निराभिमानिता को जीवन में लाइये । निराभिमानिता आयेगी सत्संग सुनने और मनन करने से तथा ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों के दैवी सेवाकार्यों में विनयपूर्वक सहभागी होने से । विवेकपूर्ण विनय अपने चित्त से अहंकार का उन्मूलन करके आत्मप्रसाद का बीजारोपण करता है । जिसका अहं मिट जाता है उसका चित्त परमात्मा में स्थिर हो जाता है ।