जीव-सृष्टि से ही दुःख निकला
अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश - ‘योगदर्शन’ के अनुसार ये दुःख के कारण हैं । योगी कहते हैं कि अविद्या के इस परिवार का नाश कर दो विवेक-ख्याति से । वह होगी चित्तवृत्तियों के निरोध से । समाधि में जब द्रष्टा अपने स्वरूप में स्थित होगा, तब व्युत्थान-दशा में जान जायेगा कि संसार की किसी वस्तु से मेरा संबंध नहीं है । वह वस्तु फिर आये या जाय । योगदर्शन कहता है कि दुःख-क्लेश आविद्यक (अविद्या से उत्पन्न) हैं । अतः अविद्या की निवृत्ति यदि कर दो तो तुम्हारा क्लेश मिट जायेगा qकतु संसार प्राकृत है अतः संसार ज्यों-का-त्यों बना रहेगा । प्राकृत संसार न सुख देता है न दुःख ।
वेदांत-दर्शन कहता है कि सृष्टि दो प्रकार की है - एक ‘जीव-सृष्टि’ और दूसरी ‘ईश्वर-सृष्टि’ । पृथ्वी, जलादि पंचभूत, शब्द-स्पर्शादि तन्मात्राएँ, इन्द्रियाँ, अंतःकरण तथा स्त्री, पुरुष आदि प्राणी इत्यादि ईश्वर-सृष्टि हैं । ईश्वर-सृष्टि दुःखद नहीं है । किंतु ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है’, ‘यह मैं नहीं हूँ और यह मेरा नहीं है’ - यह जीव की बनायी हुई सृष्टि है, जो दुःखद है । ‘तैत्तिरीय उपनिषद्’ का कहना है कि आनन्दाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते । अर्थात् आनंद से ही ये सब भूत उत्पन्न होते हैं । तो ईश्वर की सृष्टि का उपादान तो आनंद है ।
सृष्टि आनंद से निकली है, आनंद में स्थित है, आनंद में ही लीन हो जायेगी, अतः सृष्टि आनंदरूप है । हुआ यह कि ‘इतना मेरा, इतना तेरा’ - यह जो जीव ने मान लिया, इस जीव-सृष्टि से ही दुःख निकल पड़ा । मनुष्य ने कभी विचार नहीं किया । यह विचार न करना ही अविद्या है, अज्ञान है ।
मूल आत्म-परमात्म तत्त्व का विचार न करना तथा बुद्धि के राग-द्वेष में, मन के विकारी आकर्षण में और झूठ की आपाधापी में सत्-बुद्धि करके उलझना दुःखों और जन्म-मरण का मूल है ।
पूज्य बापूजी कहते हैं कि ‘‘अपना सहज स्वभाव, शाश्वत स्वभाव जो जाग्रत को जानता है, वही स्वप्न को जानता है, वही गहरी नींद का अनुभव करता है; वही तुरीय तत्त्व अपना-आपा है । जिसको हम छोड़ नहीं सकते वह परब्रह्म-परमात्मा है । जिसको हम रख नहीं सकते वह संसार है, जीव की कल्पना का जगत है । सत् - जो सदा रहे । शरीर के पहले हम थे, बाद में हम रहेंगे, हम ‘सत्’ हैं । शरीर मिथ्या है, सुख-दुःख मिथ्या है । चिद् - हम ज्ञानस्वरूप हैं । हाथ को पता नहीं कि ‘मैं हाथ हूँ’, हमको पता है । मन-बुद्धि का भी हमको पता है । हम चिद्रूप हैं । हाथ-पैर, मन-बुद्धि को सुख नहीं है । हमारे सुखस्वभाव, आनंदस्वभाव से ही ये सुखी होते हैं । जिनको गुरुकृपा पच जाती है उनका यह कहना युक्तियुक्त है :
देखा अपने आपको मेरा दिल दीवाना हो गया ।
न छेड़ो मुझे यारों मैं खुद पे मस्ताना हो गया ।।
ऐहिक संसार तो क्या, स्वर्ग और ब्रह्मलोक भी उस महापुरुष को आकर्षित नहीं कर सकते !
धन्या माता पिता धन्यो... उसके माता-पिता धन्य हैं । गोत्रं धन्यं कुलोद्भवः । उसका कुल-गोत्र धन्य है ।’’