लगभग सन् १९७०-७१ की बात है । भरतपुर (राज.) की सिमको वैगन फैक्टड्ढी के तत्कालीन महाप्रबंधक ने बताया :स्वामी श्री शरणानंदजी महाराज के साथ मेरा परिचय ट्रेन में हुआ था । मेरा विनोदी स्वभाव था । समय काटने के लिए मैंने स्वामीजी से पूछा : ‘‘स्वामीजी महाराज ! हमारे जैसे आदमी के लिए भी भगवान के यहाँ कोई स्थान है या नहीं ? मेरा जीवन बहुत ही व्यस्त और भोग-प्रधान है । रात और दिन बड़े लोगों के बीच तामसी खान-पान, देर रात तक जागरण आदि में बीतता है । शराब-पार्टी तो मामूली बात है ।’’
स्वामीजी ने मेरी बात बड़े ध्यान से सुनी और बोले : ‘‘तुम्हारी पत्नी है ? पुत्र है ? उनसे प्यार करते हो ?’’
‘‘हाँ, बहुत प्यार करता हूँ ।’’
‘‘अच्छा, अब आगे उनसे दो गुना प्यार करो, तुम्हें भगवान का प्यार मिल जायेगा ।’’
‘‘महाराज ! दो गुना क्या, मैं दस गुना प्यार दे सकता हूँ !’’
‘‘क्या तुम प्यार का मतलब समझते हो ? कहीं मोह-ममता, आसक्ति तो नहीं करते ?’’
मैं सोचने लगा, ‘मामला टेढ़ा है ।’ इतने में स्वामीजी ने पुनः पूछा : ‘‘यह तो बताओ, तुम पत्नी को कितना प्रेम करते हो ?’’
मैंने कहा : ‘‘जान दे सकता हूँ, उसके लिए सब कुछ कर सकता हूँ !’’
‘‘वह तुमसे प्यार न करे, किसी अन्य से करे, क्या तब भी जान दे सकते हो ?’’
ऐसे प्रश्न की कल्पना मैं स्वप्न में भी नहीं कर सकता था । मैंने भावावेश में कहा : ‘‘उसे उसी समय शूट कर दूँगा । एक मिनट भी देर नहीं करूँगा ।’’
स्वामीजी महाराज ने सहजता से फरमाया : ‘‘भैया ! इसे प्रेम नहीं कहते, यह तो आसक्ति है । वह तुम्हें प्रेम दे तब तुम भी प्रेम दो - यह तो प्रेम की परिभाषा ही नहीं है । बुरे-से-बुरे व्यक्ति को भी तुम प्रेम कर सको, उसकी सेवा कर सको तो तुमको भगवान के यहाँ स्थान मिल सकता है ।’’
ऐसे एक नहीं करोड़ो भूले-भटके लोगों को पूज्य बापूजी के सत्संग-प्रवचनों एवं सत्साहित्य के माध्यम से दिव्य जीवन की प्रेरणा मिली है ।