(संत कबीरजी जयंती : 24 जून)
हृदय की बात जाननेवाला सत्शिष्य
पंचगंगा घाट पर सभी संत आध्यात्मिक चर्चा कर रहे थे । अंदर गुफा में बैठ के स्वामी रामानंदजी मानसिक पूजा कर रहे थे । वे पूजा की सभी सामग्री एकत्र कर नैवेद्य आदि सब चढ़ा चुके थे । चंदन मस्तक पर लगाकर मुकुट भी पहना चुके थे परंतु माला पहनाना रह गया था । मुकुट के कारण माला गले में जा नहीं रही थी । स्वामीजी कुछ सोच रहे थे ।
इतने में रामानंदजी के शिष्य कबीरजी को गुरुदेव के हृदय की बात मालूम पड़ गयी और वे बोल उठे : ‘‘गुरुदेव ! माला की गाँठ को खोलकर फिर उसे गले में बाँध दिया जाय ।’’
कबीरजी की युक्तिभरी बात सुनकर रामानंदजी चौंके कि ‘अरे, मेरे हृदय की बात कौन जान गया ?’ स्वामीजी ने वैसा ही किया । परंतु जो संत बाहर कबीरजी के पास बैठे हुए थे, उन्होंने कहा कि ‘‘कबीरजी ! बिना प्रसंग के आप क्या बोल रहे हैं ?’’
कबीरजी ने कहा : ‘‘ऐसे ही एक प्रसंग आ गया था, बाद में आप लोगों को ज्ञात हो जायेगा ।’’
पूजा पूरी करने के बाद रामानंदजी गुफा से बाहर आये, बोले : ‘‘किसने माला की गाँठ खोलकर पहनाने के लिए कहा था ?’’
सभी संतों ने कहा : ‘‘कबीरजी ने अकस्मात् हम लोगों के सामने उक्त बातें कही थीं ।’’
रामानंदजी का हृदय पुलकित हो गया और अपने प्यारे शिष्य कबीरजी को छाती से लगाते हुए बोले : ‘‘वत्स ! तुमने मेरे हृदय की बात जान ली । मैं तुम्हारी गुरुभक्ति से संतुष्ट हूँ । तुम मेरे सत्शिष्य हो ।’’
गुरुदेव का आशीर्वाद व आलिंगन पाकर कबीरजी भावविभोर हो गये और गुरुदेव के श्रीचरणों में साष्टांग प्रणाम करके बोले : ‘‘प्रभो ! यह सब आपकी महती अनुकम्पा का फल है । मैं तो आपका सेवक मात्र हूँ ।’’
इस प्रकार कबीरजी पर गुरु रामानंदजी की कृपा बरसी और वे ब्रह्मज्ञानी महापुरुष हो गये ।
अग्राह्य को भीतर से
बाहर निकालो !
कबीरजी ब्रह्मज्ञान का अमृत लुटाने हेतु देशाटन करते थे । एक बार कबीरजी अरब देश पहुँचे । वहाँ इस्लाम धर्म के एक प्रसिद्ध सूफी संत जहाँनीगस्त रहते थे । कबीरजी ने उनका बड़ा नाम सुना तो उनसे मिलने पहुँचे परंतु फकीर ने अपनी महानता के अहंकार के वशीभूत होकर कबीरजी से मुलाकात नहीं की ।
उन फकीर ने सिद्धियाँ तो प्राप्त कर ली थीं परंतु आत्मज्ञान न होने से अहंकार दूर नहीं हुआ था । एक दिन फकीर को रात्रि में स्वप्न आया कि ‘किन्हीं हयात महापुरुष के दर्शन-सत्संग के बिना तुम्हारा अज्ञान दूर नहीं होगा । अतः भारत में जाओ और संत कबीरजी के दर्शन करो ।’
जहाँनीगस्त फकीर ने पूछा : ‘कौन कबीर ?’
‘भारत के कबीर, जिन्होंने सिकंदर लोदी को पराजित किया है और जो तुमसे मिलने आये थे परंतु तुमने अहंकारवश उनसे मुलाकात नहीं की ।’
सुबह उठते ही फकीर स्वप्न की बात पर चिंतन करने लगे कि ‘मैं कबीरजी को पहचान न सका । ऐसे महापुरुष मेरे द्वार पर आये और मैंने उनका अपमान कर दिया । इसलिए अल्लाह की ओर से मुझे यह आदेश हुआ है । अब मैं कबीरजी का दर्शन अवश्य करूँगा ।’ ऐसा निश्चय करके जहाँनीगस्त अरब से चल पड़े । इधर कबीरजी पहले ही जान गये कि जहाँनीगस्त आ रहे हैं तो उनके बैठने के लिए आसन की व्यवस्था करा दी । साथ ही उन्होंने आश्रम के सामने एक सूअर बँधवा दिया ।
फकीर कबीरजी के आश्रम के निकट पहुँचे । दूर से ही सूअर देखकर उनके मन में घृणा हुई कि ‘कबीरजी सूअर को क्यों बाँधे हुए हैं ? वे तो संत हैं, उनको इससे दूर रहना चाहिए ।’ इस प्रकार तर्क-वितर्क कर लौटने का विचार करने लगे । संत कबीरजी उनके मनोभाव को जान गये, बोले : ‘‘संतजी ! आइये, क्यों इतनी दूर से आकर वहाँ रुक गये हो ?’’
वे कबीरजी के पास आये । थोड़ा विश्राम व भोजन के बाद कबीरजी के साथ सत्संग की चर्चा होने लगी । जहाँनीगस्त ने कबीरजी से पूछा : ‘‘आप बहुत बड़े संत-महापुरुष हैं परंतु आपने इस अग्राह्य को क्यों ग्रहण किया है ?’’
कबीरजी बोले : ‘‘जहाँनीगस्तजी ! मैंने अपने अग्राह्य को भीतर से बाहर कर दिया है परंतु आप अभी उसको भीतर ही रखे हुए हैं ।’’
‘‘मैं कुछ समझा नहीं !’’
‘‘मैंने भेदबुद्धिरूपी सूअर को भीतर से निकालकर बाहर बाँध दिया है परंतु आप उसे अपने अंदर रखे हुए हैं और इस पर भी आप पवित्र बनते हैं । इस सूअर को आप अपने अंदर छिपाकर रखे हुए हैं ।’’
यह सुनते ही उन फकीर का सारा भ्रम दूर हो गया । कबीरजी के सत्संग से उनकी अविद्या (जगत को सत्य मानना व अद्वैत परमात्मा को न जानना), अस्मिता (देह को ‘मैं’ मानना), राग, द्वेष और अभिनिवेश (मृत्यु का भय) अलविदा हो गये ।
जिधर देखता हूँ खुदा ही खुदा है ।
खुदा से नहीं चीज कोई जुदा है ।।
जब अव्वल व आखिर खुदा-ही-खुदा है ।
तो अब भी वही, कौन इसके सिवा है ।।
जिसे तुम समझते हो दुनिया ऐ गाफिल1 ।
यह कुल हक2 ही हक, नै जुदा नै मिला है ।।
1. अज्ञानी 2. सत्यस्वरूप परमात्मा