Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

कहीं तुम्हारे वैसे दिन न आयें

क्या करें समय ऐसा है, हमारे सामने कोई देखता नहीं... - तुम देखते हो कि बूढ़े लोग कैसे फरियाद से जीते हैं । कहीं तुम्हारे वैसे दिन न आयें ।

लाचारी से, हृदय में फरियाद लेकर शरीर व संसार से विदा होना पड़े ऐसे दिन न आ जायें । लाचार होकर अस्पताल में पड़े रहे, घर में बीमार हो के पड़े रहे और बुरी हालत में मरना पड़े... नहीं-नहीं, मौत आने के पहले, जहाँ मौत की दाल नहीं गलती उस परमेश्वर में आओ बेटे ! तुम्हारी पदवियों की ऐसी-तैसी, तुम्हारे रुपये-पैसों की ऐसी-तैसी, पदों की ऐसी-तैसी । पदवियाँ साथ नहीं चलेंगी, पद साथ नहीं चलेंगे, जिनसे बकबक करते हो उनमें से कोई भी तुम्हारा साथ नहीं देगा । अकेले जाना पड़ेगा, भटक जाओगे बुरी तरह ।

जिसने अनुराग का दान दिया,

उससे कण माँग लजाता नहीं !

जिसने प्रेम-रस देने की योग्यता दी उससे संसार की तुच्छ चीजें माँगने में तुझे लज्जा नहीं आती ! मिट जानेवाली चीजें माँगता है, मिट जानेवाली चीजों के लिए सोचता है, मिट जानेवाली चीजों के लिए लगा रहता है, तुझे शर्म नहीं आती !

माया किसी साड़ी पहनी हुई महिला का नाम नहीं है, ‘मा... या... जो दिखे और टिके नहीं, जो दिखे और वास्तव में हो नहीं, उसका नाम मायाहै । जैसे केले का स्तम्भ दिखता है और पर्तें हटाओ तो कुछ नहीं, प्याज ठोस दिखता है किंतु पर्तें हटाओ तो कुछ नहीं, ऐसे ही ये सब हैं । मेरा-तेरा’, ‘यह-वहसब देखो तो सपना । बचपन में देखो कैसा सब ठोस लगता था, जवानी में कितनी बड़ी-बड़ी तरंगों पर नाचे थे - यह बनूँगा, ऐसा बनूँगा, ऐसा पाऊँगा...फिर क्या झख मार ली ! डॉक्टर बनूँगा, वकील बनूँगा, इंजीनियर बनूँगा, चीफ इंजीनियर बनूँगा, फलाना बनूँगा...बन-बन के क्या झख मार ली ! बुढ़ापे में रोते-रोते मर गये, क्या मिला ? अरे ! जिससे बना जाता है उसको तो पहचान ! फिर बनना हो तो बन । जो बनेगा वह बिगड़ेगा, जो वास्तव में है उसको जान ले । यह शरीर नहीं था, उसके पहले तू कहाँ था, कौन था और मरने के बाद तू कौन रहेगा इसको जान ले और यह कठिन नहीं है । ईश्वर को पाना कठिन नहीं है, कठिन होता तो राजा जनक को राजकाज करते-करते कैसे मिलता ? जनक समय निकालते थे, बकबक नहीं करते थे । जनक राज-व्यवहार चलाते थे और उन्होंने संयम करके आत्मसाक्षात्कार कर लिया । हे भगवान ! हे वासुदेव ! तेरी प्रीति दे दे, तुझमें विश्रांति दे दे । तू हमारा आत्मा है और हम अभागे आज तक तुझसे मिले नहीं । स्वामी रामतीर्थ अपने को उलाहने देते-देते रोते और रोते-रोते सो जाते थे, उनका तकिया भीग जाता था ऐसी तड़प थी तो उन्हें एक साल के अंदर आत्मसाक्षात्कार हो गया । जो ईश्वर के लिए तड़पता है, ईश्वर उसके हृदय में प्रकट होता है । धन्य तो वे हैं जिन्होंने परमात्मा को अपना माना, उससे प्रीति करके प्रेम-रस जगाया, ज्ञान के प्रकाश में जिये, परहित की पूर्णता में प्रवेश किया ।