श्रीकृष्ण जन्माष्टमी : 18 व 19 अगस्त)
भगवान श्रीकृष्ण का जन्म बुझे दीयों को फिर से जगाने का संदेश देता है, मुरझाये दिलों को अपना ओज का दान करता है । श्रीकृष्ण के जीवन में एक और महत्त्वपूर्ण बात छलकती, झलकती दिखती है कि बुझे दिलों में प्रकाश देने का कार्य कृष्ण करते हैं । उलझे दिलों को सुलझाने का कार्य करते हैं और उस कार्य के बीच जो अड़चनें आती हैं, वे चाहे मामा कंस हो चाहे पूतना हो, उनको वे किनारे लगा देते हैं । अर्थात् साधक साधना करे, मित्र, व्यवहार, खान-पान, रंग-ढंग... जो साधना या ईश्वरप्राप्ति में मददरूप हो अथवा जो हमारी घड़ीभर के लिए थकान उतारने के काम में आ जाय उसका उपयोग करके फिर साधक का लक्ष्य यही होना चाहिए - परमात्म-तत्त्व की प्राप्ति ! जिस हृदय को आनंद आता है और जहाँ से आनंद आता है वहाँ पहुँचने का ढंग साधक को पा लेना चाहिए ।
साधक को अपने स्वरूप में स्वस्थ होने के लिए इस बात पर खूब ध्यान देना चाहिए कि तुम्हारी साधना की यात्रा में, ईश्वर के रास्ते में यदि तुम्हारे को कोई नीचे गिराता है तो कितना भी निकट का हो फिर भी वह तुम्हारा नहीं है । और ईश्वर के रास्ते में यदि तुम्हें कोई मदद देता है तो वह कितना भी दूर का हो, वह तुम्हारा है । वे सब तुम्हारे गुरुभाई हैं । परमात्मा से जो तुम्हें दूर रखना चाहते हैं उनके लिए संत तुलसीदासजी कहते हैं :
जाके प्रिय न राम-बैदेही ।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही ।।
वह परम स्नेही भी हो फिर भी उसे करोड़ों वैरियों की नाईं समझ के उसका त्याग कर देना । त्याग न कर सको तो उसकी बातों में न आना क्योंकि जो स्वयं को मौत से, विकारों से बचा न सका, अपने जीवन को धन्य न कर सका उसकी बातों में आकर हम कहाँ धन्यता अनुभव करेंगे ! इसलिए कौरवों की बातों में नहीं, कृष्ण की बातों में आना हमारा कर्तव्य होता है ।
आप भी ऐसी समझ बढ़ाओ
संसारी कोई भी बात आयी तो यह आयी, वह आयी... उसको देखनेवाला ‘मैं’ नित्य है - ऐसा श्रीकृष्ण जानते थे । आप भी इस प्रकार की समझ बढ़ाओ । यह आयी, वह आयी... यह हुआ, वह हुआ... यह सब हो-हो के मिटनेवाला होता है; अमिट ‘मैं’स्वरूप चैतन्य का कुछ नहीं बिगड़ता है । ऐसी सूझबूझ के धनी श्रीकृष्ण सदा बंसी बजाते रहते हैं, सदा माधुर्य का दान करते रहते हैं और प्रेमरस का, नित्य नवीन रस का पान करते-कराते रहते हैं । तो यह जन्माष्टमी का उत्सव श्रीकृष्ण की जीवनलीला की स्मृति करते हुए आप अपने कर्म और जन्म को भी दिव्य बना लें ऐसी सुंदर व्यवस्था है ।
यह तुम कर सकते हो
अपने-आपको आप नहीं छोड़ सकते । जिसको कभी नहीं छोड़ सकते, ॐकार का गुंजन करके उसमें विश्रांति पा लो । सत्संग सुन के उसका ज्ञान पा लो । भगवान साकार होकर आ गये तो भी अर्जुन का दुःख नहीं मिटा लेकिन भगवान के तत्त्वज्ञान का आश्रय लिया तो अर्जुन का दुःख टिका नहीं ।
श्रीकृष्ण की दिनचर्या अपने जीवन में ले आओ । श्रीकृष्ण थोड़ी देर कुछ भी चिंतन नहीं करते और समत्व में आ जाते थे । आप भी कुछ भी चिंतन न करके समता में आने का अभ्यास करो - सुबह करो, दोपहर करो, कार्य या बातचीत में भी बीच-बीच में करो ।
कंस, काल और अज्ञान से समाज दुःखी है । इसलिए समाज में कृष्णावतार होना चाहिए । हर हृदय में कृष्णावतार सम्भव है और जरूरी भी है । श्रीकृष्ण ने कंस को मारा, काल के गाल पर थप्पड़ ठोक दिया और अज्ञान मिटाकर अर्जुन व अपने प्यारों को ज्ञान दिया । शुद्ध अंतःकरण ‘वसुदेव’ है, समवान मति ‘देवकी’ है, हर परिस्थिति में यश देनेवाली बुद्धि ‘यशोदा’ है । भगवान बार-बार यशोदा के हृदय से लगते हैं । ऐसे ही बार-बार भगवद्-स्मृति करके आप अपने भगवद्-तत्त्व को अपने हृदय से लगाओ । बाहर से हृदय से लगाना कोई जरूरी नहीं, उसकी स्मृति करके हृदय भगवदाकार कर लो ! और यह तुम कर सकते हो बेटे !
संस्कृति के लिए संकोच नहीं
कोई बड़ा शूरवीर रण छोड़कर भाग जाय तो उसे कायर कहते हैं किंतु हजारों की सुरक्षा और संस्कृति की रक्षा में रण का मैदान छोड़ के कायरों का नाटक करनेवाले का नाम हम लोग श्रद्धा-भक्ति, उत्साह से लेते हैं : ‘रणछोड़राय की जय !’ यह कैसा अद्भुत अवतार है ! भक्तों के लिए, संस्कृति, समाज व लोक-मांगल्य के लिए पुरानी चप्पल पीताम्बर में उठाने में श्रीकृष्ण को संकोच नहीं होता । अर्जुन के घोड़ों की मालिश और उनके घावों में मलहम-पट्टी करना और अर्जुन की घोड़ागाड़ी चलाना उन्हें नन्हा काम नहीं लगता । इसीमें तो ईश्वर का ऐश्वर्य है लाला ! इसीमें उनकी महानता का दर्शन हो रहा है ।
Ref: RP331-JULY2020