यद्यपि इतिहास के प्रारम्भ से विभिन्न जातियों और संस्कृतियों के लोग भारत में आते रहे हैं पर हिन्दू धर्म अपनी प्रधानता बनाये रखने में समर्थ रहा है । हिन्दू संस्कृति में कुछ ऐसी प्राणशक्ति है जो स्वभावतः दूसरे अधिक शक्तिशाली प्रवाहों में भी नहीं है। हिन्दू धर्म के अनुसार मनुष्य न तो रोटी पर और न अपने काम, पूँजी, आकांक्षा अथवा प्रभुता या बाह्य प्रकृति के साथ अपने संबंध पर जीवित रहता है, वह अपने आध्यात्मिक जीवन के भरोसे जीता है । हिन्दू धर्म ईश्वर के संसार के भीतर ओतप्रोत होने की बात पर विश्वास करता है और यह मानता है कि ऐसी कोई वस्तु नहीं जिसमें ईश्वर न हो ।
हिन्दू धर्म में विचारों की अपेक्षा जीवन का मार्ग-प्रदर्शन अधिक होता है । जो भी हिन्दू संस्कृति और हिन्दू जीवन अपनाते हैं चाहे वे आस्तिक हों या नास्तिक, संशयवादी हों या जड़वादी सब-के-सब हिन्दू हैं । हिन्दू धर्म धार्मिक विश्वासों पर नहीं बल्कि जीवन में आध्यात्मिक और नैतिक दृष्टि पर जोर देता है । सत्कार्य करनेवाला, न कि इस या उस मत में विश्वास करनेवाला, दुर्गति को कभी नहीं प्राप्त होता -
न हिकल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ।
(भगवद्गीता - 6.40)
हिन्दू धर्म नैतिक जीवन पर जोर देता है । हिन्दू धर्म कोई सम्प्रदाय नहीं है बल्कि उन सबका भ्रातृमण्डल है, जो सद्नियमों को मानते हैं और निष्ठापूर्वक सत्य की खोज करते हैं। इसके धर्मप्रचार की भावना उन धर्मों के धर्मप्रचार की भावना से भिन्न है, जिनका सिद्धांत मत-परिवर्तन कराना है।
हिन्दू धर्म का यह उद्देश्य नहीं है कि सम्पूर्ण मानवता को एक मत में दीक्षित करे क्योंकि यह चरित्र-निर्माण पर अधिक जोर देता है, विश्वास पर नहीं। विभिन्न देवों को पूजनेवाले और विभिन्न कर्मकांडों का अनुसरण करनेवाले हिन्दू धर्म में मिला लिये गये हैं। हिन्दुओं ने परम पराक्रमी पूर्वजों, संतों, ग्रह-नक्षत्रों और विभिन्न जनसमूहों के देवी-देवताओं - सबको अपने मंदिर में स्थान दिया । एकेश्वरवाद के आधार पर बहुदेववाद की व्यवस्था हुईपर यह कोई कट्टर एकेश्वरवाद नहीं था, जो अपने अनुयायियों को अपने से भिन्न मतरखनेवालों के प्रति गहरी असहिष्णुता का पाठ पढ़ाता ।
हिन्दू धर्म सजीव तत्त्वों का बहुत व्यापक संगठन है । धार्मिक कर्मकांड और सामाजिक व्यवस्था, चाहे वे कैसे भी क्यों न हों, सैकड़ों वर्षों के अनुभवों के फल हैं । हिन्दू धर्म में जबरदस्ती या डराकर काम कराने की पद्धति नहीं है बल्कि वह समझाकर, सुझाव रखकर काम कराने पर विश्वास करता है ।
हिन्दू धर्म आध्यात्मिक शक्ति पर विश्वास करता है, जो आत्मा के विकास को अवरुद्ध करनेवाले बंधन को तोड़ देती है। जिस बात पर विशेष ध्यान दिया जाता है वह धर्म-मत नहीं, प्रत्युत चरित्र है। धर्म कोरे विश्वास का नाम नहीं है बल्कि वह सच्चरित्र-जीवन है ।
हिन्दू धर्म ने अपने से भिन्न मतवालों पर अत्याचार करने को प्रोत्साहन नहीं दिया । अन्य धर्मों की अपेक्षा इसका इतिहास पवित्र है । विभिन्न सम्प्रदायों को इसने एक में संगठित कर शांतिपूर्वक रखा है । जब दो या तीन धर्म यह दावा करते हैं कि उन्होंने परम सत्य का साक्षात्कार किया है और उस सत्य को अपनाना ही स्वर्गप्राप्ति का एकमात्र साधन है तो संघर्ष होना निश्चित है । इस संघर्ष में एक धर्म दूसरे धर्म को अपने से एक पग आगे नहीं बढ़ने देगा और जब तक संसार धूल में नहीं मिल जायेगा कोई भी अपना प्रभुत्व स्थापित नहीं कर सकेगा । अपने धर्म के अतिरिक्त अन्य सभी धर्मों को नष्ट कर देना धर्म के क्षेत्र में विद्रोह है, जिसे हमें अवश्य रोकना चाहिए पर यह हम तभी रोक सकते हैं जब हिन्दू धर्म में बतायी गयी विधि के समान किसी विधि को अपनायें, जिसमें धर्म की एकता किसी एक बात पर ईमान लाने पर नहीं, प्रत्युत एक समान लक्ष्य की प्राप्ति पर स्थापित हो । मुझे निश्चित लगता है कि भविष्य में धार्मिक संघर्ष संबंधी समस्याओं को हल करने में हिन्दू पद्धति अपनायी जायेगी ।