- नेताजी सुभाषचंद्र बोस
विद्यार्थी का प्राथमिक कर्तव्य है चरित्र-निर्माण । हम किसीके चरित्र को उसके कार्यों द्वारा आँक सकते हैं। कार्य ही चरित्र को व्यक्त करता है । किताबी जानकारों से मुझे घोर अरुचि है । मैं चाहता हूँ चरित्र, विवेक, कर्म । चरित्र के अंतर्गत सब कुछ आ जाता है - भगवान की भक्ति, देशभक्ति, भगवान को पाने की उत्कट आकांक्षा ।
मैंने यह अनुभव कर लिया है कि अध्ययन ही विद्यार्थी के लिए अन्तिम लक्ष्य नहीं है। विद्यार्थियों का प्रायः यह विचार होता है कि अगर उन पर विश्वविद्यालय का ठप्पा लग गया तो उन्होंने जीवन का चरम लक्ष्य पा लिया लेकिन अगर किसीको ऐसा ठप्पा लगने के बाद भी वास्तविक ज्ञान नहीं प्राप्त हुआ तो ? मुझे कहने दीजिये कि मुझे ऐसी शिक्षा से घृणा है । क्या इससे कहीं अधिक अच्छा यह नहीं है कि हम अशिक्षित रह जायें ?
शिक्षा के उद्देश्य हैं बुद्धि को कुशाग्र बनाना और विवेकशक्ति को विकसित करना । यदि ये दोनों उद्देश्य पूर्ण हो जाते हैं तो यह मानना चाहिए कि शिक्षा का लक्ष्य पूरा हो गया है। यदि कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति चरित्रवान नहीं है तो क्या मैं उसे पण्डित कहूँगा ? कभी नहीं । और यदि एक अनपढ़ व्यक्ति ईमानदारी से काम करता है, ईश्वर में विश्वास रखता है व उससे प्रेम करता है तो मैं उसे महापण्डित मानने को तैयार हूँ । कोई व्यक्ति कुछ बातें रट-रटकर ही विद्वान नहीं बन जाता । मुझे केवल श्रद्धा चाहिए । तर्क से अतीत श्रद्धा, यह श्रद्धा कि भगवान का अस्तित्व है । इसके अतिरिक्त मुझे कुछ भी नहीं चाहिए । महान ऋषियों ने कहा है कि श्रद्धा से ही ज्ञानप्राप्ति का मार्ग खुलता है । श्रद्धा से मुझमें भगवद्भक्तिजाग्रत होगी और भक्ति से ज्ञान मुझे स्वतः प्राप्त होगा ।
भारतभूमि भगवान को बहुत प्यारी है । प्रत्येक युग में उन्होंने इस महान भूमि पर त्राता के रूप में जन्म लिया है, जिससे जन-जन को प्रकाश मिल सके, धरती पाप के बोझ से मुक्त हो और प्रत्येक भारतीय के हृदय में सत्य एवं धर्म प्रतिष्ठित हो सके। भगवान अनेक देशों में मनुष्य के रूप में अवतरित हुए हैं लेकिन किसी अन्य देश में उन्होंने इतनी बार अवतार नहीं लिया जितनी बार भारत में लिया है । इसलिए मैं कहता हूँ कि हमारी भारतमाता भगवान की प्रिय भूमि है ।
मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जो आधुनिकता के जोश में अपने अतीत के गौरव को भूल जाते हैं। हमें भूतकाल को अपना आधार बनाना है । भारत की अपनी संस्कृति है, जिसे उसे अपनी सुनिश्चित धाराओं में विकसित करते जाना है। हमारे पास विश्व को देने के लिए दर्शन, साहित्य, कला व विज्ञान में बहुत कुछ नया है और उसकी ओर सारा संसार टकटकी लगाये हुए है ।
अब समय नहीं है और सोने का । हमको अपनी जड़ता से जागना ही होगा, आलस्य त्यागना ही होगा और कर्म में जुट जाना होगा ।
(संकलित)