दुर्जनः सज्जनो भूयात् सज्जनः शान्तिमाप्नुयात् ।
शान्तो मुच्येत बन्धेभ्यो मुक्तश्चान्यान् विमोचयेत् ।।
यह वैदिक प्रार्थना कितनी उदारता की खबर देती है । हे भगवान ! दुर्जनः सज्जनो भूयात्... ‘दुर्जन सज्जन बनें ।’ दुर्जनों का नाश नहीं, सज्जन हो जायें और सज्जन केवल सज्जनता में ही अटकें नहीं, सज्जनः शान्तिमाप्नुयात्... ‘सज्जनों को शांति मिले ।’ और शांत व्यक्ति शांति में रुके न रहें । शान्तो मुच्येत बन्धेभ्यो... ‘शांतात्मा अपने मुक्त स्वरूप का अनुभव करें ।’ शांत व्यक्ति बंधनों से, जन्म-मरण से, राग-द्वेष से, सुख-दुःख की सत्यता से मुक्त हो जायें । मुक्तश्चान्यान् विमोचयेत् । ‘मुक्त पुरुष औरों को मुक्ति के मार्ग पर ले जायें ।’ मुक्ति हमारा सहज जन्मसिद्ध अधिकार है । कितनी दिव्य दृष्टि, कितना ऊँचा नजरिया है !
जीव तो महासज्जन परमात्मा का अविभाज्य अंग है, दुर्जनता आगंतुक है । दुर्जन को इन्द्रियों के द्वारा सुख लेने की आदत है इसलिए वह बेचारा दुर्जन बना । कपड़ा है न, यह वास्तव में मैला नहीं होता परंतु मैल आता है इसलिए धोना पड़ता है । ऐसे ही दुर्जनता आती है । जप, सत्संग, ध्यान से नीरसता चली जाती है तो दुर्जनता भी चली जाती है, तो सज्जन बनेगा । इसीलिए प्रार्थना करते हैं : ‘हे भगवान ! दुर्जन सज्जन बनें और सत् की तरफ आयें ।’ सज्जनता तो स्वभाव से है ।
सज्जन संसार के व्यवहार में इधर-उधर उलझे नहीं, उसको शांत भी होना चाहिए । शांति से सामर्थ्य मिलता है, रस मिलता है । सामर्थ्य और रस से नीरसता चली जाती है । नीरस जीवन में ही अपराध, दुःख, चिंता, परेशानी होती है । अतः सज्जन को आत्मा-परमात्मा में शांत होने की व्यवस्था मिले और शांत कहीं अंतःकरण में, शांति में रुक न जाय, फिर अशांति उसको दुःख न दे इसलिए वह शांत बंधनों से मुक्त हो कि ‘शांति में भी वही है, अशांति में भी वही है । वाह प्रभु ! मन अशांत हुआ, मैं उसको जानता हूँ । शरीर बीमार हुआ, मैं उसको जानता हूँ ।’ और फिर मुक्त पुरुष औरों को भी मुक्त करते रहें । और
महामनाः स्यात्, तद् व्रतम् ।
बड़े मनवाले बनो, उदार हृदयवाले बनो - यह व्रत है ।
ऋतून् न निन्देत्, तद् व्रतम् ।
वर्षन्तं न निन्देत्, तद् व्रतम् ।
तपन्तं न निन्देत्, तद् व्रतम् ।
लोकान् न निन्देत्, तद् व्रतम् ।
‘हाय-हाय ! बरसात..., हाय-हाय ! गर्मी...’ - ऐसा करके अपना हृदय खराब मत करो । ‘वाह-वाह ! कृपा बरस रही है, प्रभुजी बरस रहे हैं जल के रूप में... वाह-वाह !’ अपने हृदय को परिस्थिति के अनुकूल बनाना है । अपने मन को बनाना है, भगवान को नहीं बनाना है । भगवान के पास जाना भी नहीं है, भगवान को बुलाना भी नहीं है । बुलाना तब है कि भगवान को वैकुंठवासी बोलो, दूसरी जगह मानो तो बुलाओ । तो वे भगवान तो साकार होंगे - कैलाशवासी, वैकुंठवासी, गोलोकवासी । वह भगवान की मायावी आकृति होगी । वास्तविक भगवान तो सर्वव्यापक हैं । तो भगवान को बुलाना नहीं है, बनाना नहीं है और भगवान के पास जाना भी नहीं है । केवल भगवान की सत्ता में अपनी जो ऐठ है अपने अहं की, वह छोड़नी है । इसलिए शरणागतियोग चला ।
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत । (गीता : 18.62)
भगवान के स्वभाव में अपना स्वभाव मिला दो । बरसात आती है तो ‘वाह प्रभु ! वाह-वाह !!’ बरसात तो आनेवाली ही है, मुँह खराब करोगे, दिल खराब करोगे तो भी बरसात तो आयेगी । ‘वाह प्रभु !’ करो तो आपका हृदय पवित्र होगा और प्रभुभाव से भर जायेगा । बड़े मनवाले बनो ।
* RP-ISSUE270-JUNE-2015