‘श्रीमद् एकनाथी भागवत’ में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं :
साधु-संतों की सेवा करनी चाहिए । साधुओं में भी परिपूर्ण साधुत्व केवल सद्गुरु के ही पास होता है इसलिए उनके चरणों की सेवा करनी चाहिए । उनके सत्संग-सेवादि से संसार-बंधन टूटता है क्योंकि सद्गुरु ही सच्चे साधु और सज्जन होते हैं । उनके मधुर (रसमय) आत्मवचन श्रुतियों के ही अर्थ का उपदेश करते हैं, जिससे ज्ञानरूपी खड्ग की प्राप्ति होती है, जिसे बुद्धि के हाथ में दिया जा सकता है । उसी शस्त्र को फिर वैराग्य और नैराश्य (उपरामता) रूपी पत्थर पर घिसकर तेज बनाना चाहिए और उसे धैर्य का मजबूत हत्था लगा के अंतःकरण में संशयरहित होकर सावधानी से पकड़ना चाहिए । अपनी जी-जान लगाकर उस शस्त्र से अभ्यास करना चाहिए और फिर बराबर निशाना साध के देहाभिमान को काट डालना चाहिए ।
जो सभी संशयों का मूल गड्ढा है, जिससे देह-दुःख उत्पन्न होता है, जिसके कारण सदा विषयों का व्यसन लगा रहता है, जो काम और क्रोध का पोषण करता है, जो तीनों गुण बढ़ाता है, जो शुद्ध आत्मा में जीवभाव लाता है, जिसके कारण इस जीव को दुर्निवार (जिसका निवारण करना बहुत कठिन है ऐसा) जन्म-मरण लगा रहता है, जो सभी अनर्थों का दाता है, ममता जिसकी लाड़ली बेटी है - ऐसा यह अभिमान है । मायारूपी माँ ही ममता को पालती-पोसती है और इसीके सामर्थ्य पर यह भी इतना उन्मत्त रहता है । इसलिए वीर को युद्धभूमि में यह तेज धारवाला शस्त्र लेकर धैर्यपूर्वक सावधान हो के इतने जोर से वार करना चाहिए कि एक ही झटके में माया, ममता और अभिमान - इन तीनों के ही टुकड़े-टुकड़े हो जायें ।
भोग्य, भोग और भोक्ता; कर्म, कार्य और कर्ता; ध्येय, ध्यान और ध्याता - इस त्रिपुटी को जड़-मूल से काट डालना चाहिए । ‘मैं हूँ’, ‘मैं कौन हूँ ?’ अथवा ‘मैं ही ब्रह्म हूँ’ ऐसा अहंभाव भी काट डालने से साधक मुझ परमात्म-पद की प्राप्ति करता है । इस प्रकार वह स्वयं ही ब्रह्मस्वरूप हो जाता है । अब आप कहेंगे कि ‘आपने यह जो उपाय बताया है वह केवल शब्दों का खेल है । केवल बातों का बड़ा प्रलाप करने से अहंकार कैसे नष्ट होगा ? यदि शब्दों से ही अभिमान नष्ट होता तो बड़े-बड़े विद्वान अभिमान में क्यों डूब मरते ? अभिमान (अहंकार) अगर प्रत्यक्ष दिखाई देता तो तत्काल दौड़कर उसे काट डालते लेकिन वह तो सर्वथा अतर्क्य है । अतः केवल शब्दों से वह नष्ट नहीं होगा । उसी प्रकार आत्मा का जो साक्षात्कार होता है वह भी कोई शब्दों का खेल नहीं है ।’ तो इस शंका का समाधान सुनो । जो सदा सावधान रहकर अनन्य भाव से मेरा भजन करता है अथवा मेरी ही भावना से जो सद्गुरु के पवित्र चरणों की सेवा करता है; मुझमें और सद्गुरु के स्वरूप में कल्पांत में भी भेद नहीं है - इस अभेदभाव से जो मेरा भजन करता है, उसे सहज ही ज्ञान प्राप्त होता है । स्वाभाविक रूप से मेरे भजन में मग्न रहने के कारण उसे ज्ञानरूपी खड्ग की प्राप्ति होती है । जिस शस्त्र की धार से काल का भी हृदय काँप उठता है, वह शस्त्र अपने-आप उसके हाथ लग जाता है । उस शस्त्र के भय से ही माया, ममता और अभिमान इस जीव को छोड़कर पूरी तरह भाग जाते हैं और अहंता, ममता तथा अविद्या का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है । इस प्रकार उत्तम भक्तिभाव से मेरा जो भजन करने से इतना ज्ञान प्राप्त होता है, उसके बारे में अब मन ऐसी शंका करेगा कि ‘यह भजन कहाँ किया जाय ? हे भगवन् ! तुम्हारा स्वरूप अतर्क्य, अत्यंत सूक्ष्म और निर्गुण है । अतः तुम्हारा भजन करने के लिए कौन-सा स्थान है यही मेरी समझ में नहीं आता ।’ अगर मन में ऐसी कल्पना आती है तो मैं भजन का अति सुलभ स्थान बताता हूँ । करोड़ों पर्वतों को पार किये बिना, गिरि-गुफाओं में गये बिना, कहीं दूर जाकर परिश्रम किये बिना ही जहाँ मेरी सदा सर्वदा भेंट होती है, जहाँ मैं पुरुषोत्तम रहता हूँ, केवल वही भजन का स्थान निरुपम (अतुलनीय) है । मेरी प्राप्ति के लिए वह भक्तों का अत्यंत सुलभ ऐसा विश्रामस्थान है । सर्व सुखों का विश्रामस्थान जो आत्माराम है वह अपने हृदय में सदा समभाव से रहता है । यहीं उसका प्रेम से भजन करना चाहिए ।
ब्रह्मा से लेकर मक्खी तक सबके हृदय में एक मैं ही हूँ - यह जो जानता है वही भाग्यशाली है और मेरी प्राप्ति के लिए यही भजन उत्तम है । जिस मुझ हृदयस्थ के तेज से मन-बुद्धि आदि कार्य करते हैं, जिस मुझ स्फुरण की स्फूर्ति से पूर्ण ज्ञान पैरों पर लोटता है, उस मुझ हृदयस्थ के प्रति कोई भी भजन में तत्पर नहीं होता और बाह्य उपायों से व्यर्थ थककर लोग अनेक प्रकार के संकटों में गिर जाते हैं । ऐसे लोगों में कोई विरला ही महाभाग्यशाली होता है और वही मुझ हृदयस्थ का विवेक कर निश्चयपूर्वक मेरे भजन में लग जाता है । मुझ हृदयस्थ का भजन करने पर जिस ज्ञान से अधःपतन नहीं होता ऐसा मेरा सम्पूर्ण वैराग्ययुक्त आत्मज्ञान वह प्राप्त करता है । उस ज्ञान के भय से ही अभिमान भाग जाता है । वह अपना ज्ञान मैं उन्हें देता हूँ जो सदा-सर्वदा मुझ हृदयस्थ का भजन करते हैं । जिस ज्ञान की सिद्धि से समस्त आधि-व्याधि दूर हो जाती हैं, तन-मन-वचन पवित्र हो जाते हैं तथा समस्त संशय भाग जाते हैं, उस ज्ञान से भक्त आत्मपद प्राप्त करते हैं ।
(‘श्रीमद् एकनाथी भागवत’ से)
*RP-ISSUE282