इसका अर्थ अब मुझे समझ में आया
मैं जानता हूँ कि ‘ईश्वर ने बचाया’ वाक्य का अर्थ आज मैं अच्छी तरह समझने लगा हूँ । पर साथ ही मैं यह भी जानता हूँ कि इस वाक्य की पूरी कीमत अभी तक मैं आँक नहीं सका हूँ । वह तो अनुभव से ही आँकी जा सकती है । पर मैं कह सकता हूँ कि आध्यात्मिक प्रसंगों में, वकालत के प्रसंगों में, संस्थाएँ चलाने में, राजनीति में ईश्वर ने मुझे बचाया है । मैंने यह अनुभव किया है कि जब हम सारी आशा छोड़कर बैठ जाते हैं, हमारे दोनों हाथ टिक जाते हैं, तब कहीं-न-कहीं से मदद आ ही पहुँचती है । स्तुति, उपासना, प्रार्थना - ये वहम नहीं हैं बल्कि हमारा खाना-पीना, चलना-बैठना जितना सच है, उससे भी अधिक सच ये चीजें हैं । यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं कि यही सच है, और सब झूठ है ।
ऐसी उपासना, प्रार्थना निरा वाणी-विलास नहीं होती । उनका मूल कंठ नहीं, हृदय है । अतः यदि हम हृदय की निर्मलता को पा लें, उसके तारों को सुसंगठित रखें तो उनमें से जो सुर निकलते हैं, वे गगनगामी होते हैं । मुझे इस विषय में कोई शंका नहीं है कि विकाररूपी मलों की शुद्धि के लिए हार्दिक उपासना एक रामबाण औषधि है ।
(गांधीजी की आत्मकथा, भाग 1, अध्याय 21)
गुरुपद की महत्ता पर मेरा विश्वास है
हिन्दू धर्म में गुरुपद को जो महत्त्व प्राप्त है, उसमें मैं विश्वास करता हूँ । ‘गुरु बिन ज्ञान न होय ।’ इस वचन में बहुत कुछ सच्चाई है । अक्षर-ज्ञान देनेवाले अपूर्ण शिक्षक से काम चलाया जा सकता है पर आत्मदर्शन करानेवाले अपूर्ण शिक्षक से तो चलाया ही नहीं जा सकता । गुरुपद सम्पूर्ण ज्ञानी को ही दिया जा सकता है । गुरु की खोज में ही सफलता निहित है क्योंकि शिष्य की योग्यता के अनुसार ही गुरु मिलते हैं । इसका अर्थ यह है कि योग्यताप्राप्ति के लिए प्रत्येक साधक को सम्पूर्ण प्रयत्न करने का अधिकार है और इस प्रयत्न का फल ईश्वराधीन है । (आत्मकथा, भाग 2, अध्याय 1)
गीता आचार की प्रौढ़ मार्गदर्शिका
गीतापाठ का मेरे सह-अध्यायियों पर क्या प्रभाव पड़ा, उसे वे जानें परंतु मेरे लिए तो वह पुस्तक आचार की एक प्रौढ़ मार्गदर्शिका बन गयी । वह मेरे लिए धार्मिक कोश का काम देने लगी । जिस प्रकार नये अंग्रेजी शब्दों के हिज्जों या उनके अर्थ के लिए मैं अंग्रेजी शब्दकोश देखता था, उसी प्रकार आचार-संबंधी कठिनाइयों और उनकी अटपटी समस्याओं को मैं गीताजी से हल करता था । (आत्मकथा, भाग 4, अध्याय 5)
प्राकृतिक चिकित्सा ही सचोट उपाय
कब्ज के लिए मिट्टी-उपचार का मुझ पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ा । उपचार इस प्रकार था : खेत की साफ लाल या काली मिट्टी ले के उसमें प्रमाण से पानी डालकर साफ, पतले व गीले कपड़े में उसे लपेटा और पेट पर रख के उस पर पट्टी बाँध दी । यह पुलटिस रात को सोते समय बाँधता था और सवेरे अथवा रात में जब जाग जाता तब खोल दिया करता था । इससे मेरा कब्ज जाता रहा । उसके बाद मिट्टी के ऐसे उपचार मैंने अपने पर और अपने अनेक साथियों पर किये और मुझे याद है कि वे शायद ही किसी पर निष्फल रहे हों ।
जीवन में दो गम्भीर बीमारियाँ मैं भोग चुका हूँ, फिर भी मेरा यह विश्वास है कि मनुष्य को दवा लेने की शायद ही आवश्यकता रहती है । पथ्य तथा पानी, मिट्टी इत्यादि के घरेलू उपचारों से एक हजार में से 999 रोगी स्वस्थ हो सकते हैं । क्षण-क्षण में वैद्य, हकीम और डॉक्टर के घर दौड़ने से और शरीर में अनेक प्रकार के पाक व रसायन (दवाइयाँ) ठूँसने से मनुष्य न सिर्फ अपने जीवन को छोटा कर लेता है बल्कि अपने मन पर काबू भी खो बैठता है । फलतः वह मनुष्यत्व गँवा देता है और शरीर का स्वामी रहने के बदले उसका गुलाम बन जाता है । (आत्मकथा, भाग 4, अध्याय 7)
*RP-ISSUE276-DECEMBER 2015