स्वामी रामतीर्थजी का विवाह बचपन में ही हो गया था । यद्यपि वे गृहस्थ-जीवन के प्रति उदासीन थे फिर भी उन्हें कुछ समय के लिए गृहस्थ-जीवन बिताना पड़ा था । उन दिनों में एक बार उनके परिवार में कहीं शादी थी । उसमें स्वामीजी की पत्नी का जाना जरूरी था । यद्यपि स्वामीजी को इस प्रसंग से कुछ लेना-देना नहीं था परंतु उनकी पत्नी वहॉं जाने के लिए उत्सुक थी । उसमें पत्नी का नये-नये वस्त्र पहनने और गहनों से अपने को सजाने का उत्साह जोर मार रहा था ।
स्वामीजी के घर में तो नये कपड़ों तथा गहनों का अभाव था इसलिए उनकी पत्नी ने इन वस्तुओं की उनसे मॉंग की । स्वामीजी बोलेः ‘‘अपनी गृहस्थी तो त्याग का पर्याय हो गयी है । हमारे लिए ऐसे वस्त्रालंकारों का महत्त्व ही क्या है ? हमारे आभूषण तो ज्ञान, भक्ति और वैराग्य ही हैं ।’’
लेकिन स्वामीजी की पत्नी तो सांसारिक आकर्षणों से पार नहीं हुई थी । उसे नाते-रिश्तेदारों के यहॉं बिना नये वस्त्रों व अलंकारों के जाना पसंद नहीं था । आखिर वह नाराज होकर बैठ गयी । स्वामीजी के मनाने पर बोलीः ‘‘इसमें मेरी नहीं बल्कि आपकी इज्जत का सवाल है । आप इतने बड़े आदमी हैं और आपकी पत्नी ऐसे ही वहॉं चली जायेगी तो लोग क्या कहेंगे ?’’
स्वामीजी बोलेः ‘‘अगर तुम्हारे सजने-सँवरने से कहीं मैं नाराज हो गया तो क्या यह बात तुम्हें पसंद आयेगी ? अच्छा, तुम ही बताओ कि तुम मुझे खुश रखना चाहती हो या नाते-रिश्तेदारों को ?’’
जल्दी ही स्वामीजी की बात उनकी पत्नी की समझ में आ गयी और वह बिना नये वस्त्रों व अलंकारों के ही विवाह-प्रसंग में जाने को तैयार हो गयी । जाते समय स्वामीजी ने कहाः ‘‘जहॉं तक प्रभाव का प्रश्न है वह तो सीधे-सादे रहकर भी डाला जा सकता है । लोगों को प्रभावित करने में वस्त्रालंकार नहीं बल्कि व्यक्ति का चरित्र काम आता है ।’’