Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

सत्य के साक्षात्कार का एकमात्र मार्ग

सत्य का साक्षात्कार करने के लिए देशांतर, कालांतर या वस्त्वंतर (वस्तु-अंतर = अन्य-अन्य वस्तु) की ओर दौड़ना और उनके ओर-छोर को प्राप्त कर लेने का प्रयास करना निरर्थक है । उनके स्वरूप को जानने के लिए दृश्य की ओर से अनुसंधान का मुख मोड़ना पड़ेगा । द्रष्टा ही ज्ञान है, भान अनुभव है। अतः दृश्य से विमुख होकर अपने अंतरात्मा की ओर उन्मुख होना ही एकमात्र मार्ग है। इसीको जिज्ञासा अर्थात् ज्ञान का स्वरूप जानने की इच्छा कहते हैं। आप स्वयं देख सकते हैं कि आप सत्य को ज्ञान का विषय - ज्ञेय बनाना चाहते हैं अथवा स्वयं ज्ञानस्वरूप आत्मा से जो विमुखता है, अपना ही बनाया हुआ आवरण है, उसको भंग करना चाहते हैं ?

आप मानिये या मत मानिये, आप अपने विचार की तलवार से आवरण भंग करने के लिए चाहे जितना तलवार का वार कीजिये किंतु यदि दृश्य में महत्त्वबुद्धि है, चाहे वह कहीं भी क्यों न हो- अंतर्दृश्य में, बहिर्दृश्य में, अहं में, इदं में, त्वं में, तत् में तो आप अपनी उस मानी हुई महान वस्तु को काट नहीं सकेंगे । अतः कालांतर की समाधि की कल्पना छोड़िये, देशांतर के ब्रह्मलोक का लोभ छोड़िये, वस्त्वंतर की उपलब्धि का मोह छोड़िये। आप दृढ़ता से अपने उस भानस्वरूप आत्मा का अनुसंधान कीजिये जिससे सब प्रकाशित होता है और जिसको अपने को या किसी दूसरे को प्रकाशित करने के लिए प्रकाशांतर की आवश्यकता नहीं ।

इसमें संदेह नहीं कि जब तक दृश्य की किसी भी आंतर-बाह्य रूपरेखा में महत्त्वबुद्धि, हेयबुद्धि (त्याज्यबुद्धि), उपादेयबुद्धि (ग्रहणबुद्धि), सुखबुद्धि, दुःखबुद्धि बनी रहेगी, तब तक आपकी बुद्धि अपने को प्रकाश देनेवाले सत्य आत्मा का आवरण-भंग करने में समर्थ नहीं होगी । यदि बुद्धि अपने द्वारा प्रकाशित को भी देखना चाहेगी और राग की रक्तिमा तथा द्वेष की कालिमा से दृश्य को सटाने-हटाने में संलग्न रहेगी तो विमल-धवल होकर अपने स्वप्रकाश अधिष्ठान से अभिन्नता को नहीं जान पायेगी, जो कि स्वतःसिद्ध है । इसी प्रक्रिया को श्रुति-शास्त्र ने निवृत्ति, वैराग्य अथवा अंतःशुद्धि के नाम से कहा है ।

 

हमारे दुराग्रह के दो रूप हैं - एक तो अपने व्यक्तित्व में, चाहे वह स्थूल हो या सूक्ष्म हो या कारण ही क्यों न हो, यह नैसर्गिक है । दूसरा शास्त्र के द्वारा आरोपित लोक-परलोकगामी संसारित्व में । शास्त्र द्वारा आरोपित पदार्थ में दुराग्रह शास्त्र के ही विचार से बाधित हो जाता है परंतु अपने व्यक्तित्व में जो नैसर्गिक आग्रह है, उसकी निवृत्ति तीव्र अभीप्सा एवं आत्मा के निरीक्षण-परीक्षण-समीक्षण की अपेक्षा रखती है। यह इतना दृढ़मूल है कि हम ईश्वर, समाधि अथवा मोक्ष की प्राप्ति के द्वारा भी अपने

व्यक्तित्व को ही आभूषित करना चाहते हैं । परंतु सत्य का साक्षात्कार व्यक्तित्व का भूषण नहीं है, वह व्यक्त और अव्यक्त के भेद को सर्वथा निरस्त कर देता है ।

अतः श्रुति, शास्त्र, सत्सम्प्रदाय एवं सद्गुरुओं का यह कहना है कि अपने को दृश्य की किसी कक्षा की कुक्षि में मत बाँधो । जो अदृश्य, अग्राह्य है, अमृत है, अविज्ञात है, अदृश्य-द्रष्ट है, उस निर्विवाद सत्य की उपलब्धि ही राग-द्वेष की आत्यंतिक निवर्तक है ।          

[Rishi Prasad – ISSUE-266-February 2015]