करते असाध्य को भी साध्य
लोगों के दुःख देखकर साँईं श्री लीलाशाहजी महाराज (पूज्य बापूजी के सद्गुरुदेव) का हृदय द्रवीभूत हो जाता था और वे उनका उपाय बता देते थे । जुलाई 1968 की बात है, एक भक्त की तबीयत कुछ खराब हो गयी । स्वामीजी ने कुछ कुदरती इलाज बताये परंतु उसने ध्यान नहीं दिया । उसने मद्रास (चेन्नई), मुंबई व दिल्ली के बड़े-बड़े डॉक्टरों से इलाज करवाया पर उलटा स्वास्थ्य अधिक खराब होता गया । उसकी जीने की आशा समाप्त होने लगी । उसने स्वामीजी को पत्र लिखा कि ‘अब मैं आपके ही सहारे हूँ, आशीर्वाद दें तो जाकर मालिक (भगवान) से मिलूँ ।’ वह उस समय आगरा में था ।
स्वामीजी ऐसे करुणावान कि वे स्वयं आगरा गौशाला पधारे । वह भक्त बिस्तर पर था परंतु हिम्मत करके सत्संग में पहुँचा । स्वामीजी ने सत्संगियों के समक्ष उसे खड़ा किया और अपनी ब्रह्मदृष्टि डाली । फिर बोले : ‘‘सब इलाज छोड़ दो !’’
उसने कहा : ‘‘स्वामीजी ! सभी डॉक्टरों ने जवाब दे दिया है । अब आप जैसा कहेंगे, वैसा करूँगा ।’’
स्वामीजी ने उसे 4 चीजें करने को कहा : ‘‘(1) पीपल व नीम का पेड़ जहाँ साथ-साथ हो वहाँ उनकी छाया में सुबह-शाम 1-1 घंटा बैठना । (2) मोर के पंख से बने हुए पंखे को हररोज सुबह-शाम 27 बार शरीर के चारों ओर घुमाना । (3) सीटी बजाना । (4) रोज यह कहो कि बीमारी जा रही है, शरीर ठीक हो रहा है ।’’
फिर उसे पथ्य भी बताया । उसने वैसा किया परंतु तकलीफ बढ़ती गयी । 4 दिन बाद उसके पिताजी स्वामीजी के पास आये ।
स्वामीजी ने पूछा : ‘‘दवाई तो नहीं लेता है ?’’
‘‘नहीं स्वामीजी !’’
‘‘भाई ! दवाई बदली जाती है तो ऐसा अवश्य होता है, घबराओ मत, सब ठीक हो जायेगा ।’’ फिर स्वामीजी ने उसे बादाम का प्रयोग बताया और कहा : ‘‘यह इलाज जिंदगीभर करना ।’’
स्वामीजी के कहे अनुसार उसने इलाज शुरू किया और गुरुकृपा से कुछ दिनों में सब बीमारियाँ गायब हो गयीं । सभी डॉक्टर दंग रह गये । स्वामीजी ने ऐसे कितने ही दुःखियों के दुःख दूर किये थे । मरणासन्न लाइलाजों को अद्भुत इलाज से जीवनदान दिया इन दाता ने । महाराजश्री केवल शारीरिक ही नहीं, जन्म-मरणरूपी रोग भी दूर करते थे ।
करते आत्मज्ञान की वर्षा
भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाहजी महाराज एक ऐसे महापुरुष थे जो बिना माँगे ही सत्संग व युक्तियाँ देकर भक्तों को खुशहाल कर देते थे ।
एक बार स्वामीजी एक भक्त के साथ गोधरा (गुज.) में नदी तट पर गये थे । उससे बोले : ‘‘ये जो हरे-भरे खेत आदि देख रहे हो, ये सब नाशवंत हैं । इसी प्रकार की दुनियावी खूबसूरती देखकर इन्सान मायाजाल में फँस जाता है । पूरा संसार स्वप्न की भाँति है, झूठा व कल्पित है । उसमें जो आसक्त हो जाता है, वह जन्म-मरण के चक्कर से नहीं बचता है ।
भगवन्नाम जपने के बाद फिर उसके अर्थ को जानो । फिर अर्थ से निकलकर शांतचित्त बनो । परंतु अगर मन संकल्प-विकल्प करे तो मुख से ॐकार का उच्चारण करो, जो अपने कानों द्वारा सुन सको । ऐसा करने से निज आत्मस्वरूप की जानकारी होगी तथा यह मनुष्य-जन्म सफल होगा । शरीर तो नाशवंत है, यह तुम्हारा नहीं है । तुम इसे जाननेवाले आत्मस्वरूप हो । अतः अपने स्वरूप को मत भूलना, नित्य मुक्त स्वरूप में स्थित रहना ।’’