केसरी कुमार नाम के एक प्राध्यापक, जो स्वामी शरणानंदजी के भक्त थे, उन्होंने अपने जीवन की एक घटित घटना का जिक्र करते हुए लिखा कि मैं स्वामी श्री शरणानंदजी महाराज के पास बैठा हुआ था कि गीता प्रेस के संस्थापक श्री जयदयाल गोयंदकाजी एकाएक आ गये । थोड़ी देर बैठने के पश्चात् बोले : ‘‘महाराज ! मैं वेद और उपनिषद् चाट गया । शास्त्र-पुराण सब पढ़ लिये । अनेक ग्रंथ कंठाग्र हैं । वर्षों से ‘कल्याण’ (पत्रिका) में असंख्य जिज्ञासुओं के प्रश्नों के उत्तर देता रहा हूँ । किंतु महाराज ! मुझे कुछ हाथ नहीं लगा । मैं कोरा-का-कोरा हूँ ।’’
और वे अत्यंत द्रवित हो गये । उन्हें अश्रुपात होने लगा ।
मैंने एकांत में स्वामीजी से पूछा : ‘‘महाराज ! जब इन महानुभाव की यह दशा है, तब हम जैसों की आपके मार्ग में क्या गति होगी ?’’
स्वामीजी एक क्षण चुप रहकर बोले : ‘‘गोयंदकाजी के आँसुओं के रूप में धुआँ निकल रहा है भाई ! जो इस बात का लक्षण है कि लकड़ी में आग लग चुकी है । अध्ययन ईंधन है न, जले तो मुक्ति और न जले तो बंधन !’’
मुझे चुप देखकर वे फिर ठहाका मारते हुए बोले : ‘‘निराश न हो । तुम्हारे लिए भी एक नुस्खा है । भारी बोझ लेकर चलनेवाले को देर होती ही है । गोयंदकाजी ने अपने माथे पर वेद-पुराणों का भारी गट्ठर लाद रखा था, सो उन्हें पहुँचने में देर हो रही है । तुम्हारे माथे पर हलका बोझ है, जल्दी पहुँच जाओगे । बोझा पटक दो तो और जल्दी होगी । कार्तिकेयजी पृथ्वी-परिक्रमा करते ही रहे और गणेशजी माता-पिता के चारों ओर घूमकर अव्वल हो गये ।’’ (संदर्भ : प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘तरुतले’ भाग-1)
प्राध्यापक केसरी कुमार के जीवन में घटी यह घटना एक बड़े रहस्य की ओर इंगित करती है ।
स्वामी विवेकानंदजी कहते हैं : ‘‘हम भाषण सुनते हैं और पुस्तकें पढ़ते हैं, परमात्मा और जीवात्मा, धर्म और मुक्ति के बारे में विवाद और तर्क करते हैं । यह आध्यात्मिकता नहीं है क्योंकि आध्यात्मिकता पुस्तकों में, सिद्धांतों में अथवा दर्शनों में निवास नहीं करती । यह विद्वत्ता और तर्क में नहीं वरन् वास्तविक अंतःविकास में होती है । मैंने सब धर्मग्रंथ पढ़े हैं, वे अद्भुत हैं पर जीवंत शक्ति तुमको पुस्तकों में नहीं मिल सकती । वह शक्ति, जो एक क्षण में जीवन को परिवर्तित कर दे, केवल उन जीवंत प्रकाशवान महान आत्माओं से ही प्राप्त हो सकती है जो समय-समय पर हमारे बीच में प्रकट होते रहते हैं ।’’
पूज्य बापूजी जैसे आत्मानुभव से प्रकाशवान जीवंत महापुरुष के मार्गदर्शन में उनके द्वारा बताये गये शास्त्रों का अध्ययन करना ठीक है लेकिन मनमानी पुस्तकों को पढ़नेवाले लोग प्रायः उलझ जाते हैं ।
आद्य शंकराचार्यजी ने ‘विवेक चूडामणि’ में कहा है : शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारणम् । सद्गुरु के बिना यह चित्त को भटकाने का हेतु बन जाता है । अतः मनमुखी साधक सावधान ! व्यर्थ के वाणी-व्यय व मनमानी पुस्तकों में उलझने से बचो, औरों को बचाओ ।