सन् १९५२ की बात है, भगवत्पाद साँर्इं श्री लीलाशाहजी महाराज गोधरा (गुज.) पधारे थे । सत्संग में उन्होंने कहा कि ‘‘यती रात्रि को तीन बजे के बाद नहीं सोते ।’’
एक कमजोर हृदय के व्यक्ति ने सोचा कि ‘देखूँ तो वे स्वयं भी ऐसा करते हैं कि सिर्फ कहते ही हैं !’ वह व्यक्ति पूज्यचरण की सेवा में ही था । उसका नाम था जेठानंद । स्वामीजी ने रात के १२ बजे उसे बुलाकर कहा : ‘‘पंखा चालू कर दो, मच्छर सोने नहीं दे रहे हैं ।’’ उसने पंखा चालू कर दिया । महाराज आराम से सो गये ।
तीन बजने में पाँच मिनट बाकी थे, उस व्यक्ति के शंकालु मन ने कहा : ‘देखो, स्वामीजी तीन बजे उठते हैं कि नहीं ?’ उसके मन में हलचल हो रही थी । दरवाजे की ओट से झाँककर देखा तो स्वामीजी आराम से सो रहे थे । ठीक चार मिनट के बाद स्वामीजी उठे और ध्यानमग्न हो गये । अब उसे अपनी गलती का एहसास हुआ । उसकी अंतरात्मा ने उसे फटकारा कि ‘तेरा विश्वास कच्चा है ।’ वह दबे पाँव वापस आकर अपने बिस्तर पर लेट गया, पर उसका दिल उदास था और मन में एक बोझ था ।
स्वामीजी नित्य प्रातः टहलने जाते थे । उस दिन भी पाँच बजे और स्वामीजी जंगल की ओर सैर करने निकल पड़े । जेठानंद भी उनके साथ गया । उसके मन में यही विचार चल रहा था कि ‘अपनी भूल का प्रायश्चित कैसे करूँ?’ अचानक स्वामीजी एक नीम के पेड़ के नीचे खड़े हो गये और बच्चों की तरह कहने लगे : ‘‘नीम मैया ! दातुन नहीं दोगी ? दो-चार बढ़िया दातुन नहीं दोगी ?’’
जेठानंद पेड़ पर चढ़ने के लिए जैसे ही तैयार हुआ, उसे रोककर स्वामीजी बोले : ‘‘पागल ! गिर प‹ड़ेगा ।’’
उसने कहा : ‘‘स्वामीजी ! पेड़ पर चढ़े बिना दातुन कैसे मिलेगी ?’’
स्वामीजी : ‘‘बस, यह अविश्वास ही हमारे बीच में दीवार बनकर खड़ा है । विश्वास बिल्कुल नहीं रख पाते हैं । बेटा ! विश्वास रखना चाहिए ।’’
इतने में एक लम्बा-सा साँवले रंग का अजनबी आदमी आया । उसने पाँच-छः सुंदर टहनियाँ तोड़कर स्वामीजी को दीं ।
स्वामीजी बोले : ‘‘बस, बहुत हो गयीं ।’’
जेठानंद को समझ में नहीं आया । वह रुककर उस अजनबी से कुछ पूछना चाहता था । इतने में कृपालु दाता ने उसका हाथ पकड़कर आगे बढ़ने को कहा । संत अपनी मस्ती में थे और जेठानंद अपनी बुद्धि की सुस्ती में सोचे जा रहा था । जब वे जंगल में काफी आगे निकल गये, तब निजानंद में तृप्त संतसम्राट ने कहा : ‘‘इच्छाशक्ति धारण करने से सारे कार्य सिद्ध होते हैं । आगे बढ़ना चाहिए परंतु गहराई में नहीं जाना चाहिए ।’’ उनकी अनुभव-सम्पन्न वाणी सुन उसकी आँखें खुल गयीं । उसे ऐसा लगा मानो वर्षों से पड़े अँधेरे कमरे में किसीने दीप जला दिया हो ।
पूज्य साँर्इं आगे बढ़े, नदी के तट पर चलने लगे । जेठानंद को भारत-विभाजन में अपना सब कुछ सिंध में छोड़ना पड़ा था, इस कारण वह काफी दुःखी था और मुसलमानों के प्रति द्वेष रखता था ।
दूर से नदी-तट पर एक मुसलमान को आते देख उसके भीतर द्वेष-भावना उत्पन्न हुई । अंतर्यामी संत सब जान गये । वह मुसलमान स्वामीजी के निकट आया तो उन नम्रता की मूर्ति ने कहा : ‘‘बाबा साँर्इं ! अस्सलामवालेकुम ।’’
मुसलमान ने भी नम्रतापूर्वक कहा : ‘‘वालेकुमअस्सलाम बाबा साँर्इं !’’
उसने कुछ देर स्वामीजी से वार्तालाप किया और फिर चरणस्पर्श करके चला गया । उस मुसलमान द्वारा अपने प्यारे संत को प्रणाम करते देख जेठानंद के मन से द्वेष का भाव काफूर हो गया । उसे आश्चर्य हुआ कि ‘स्वामीजी ने कैसे एक पल में मेरी द्वेष-भावना दूर कर दी !’ उसका स्वामीजी के प्रति आदर, अहोभाव और भी बढ़ गया ।
आपश्री लौटकर निवास पर आये । जेठानंद को रातवाली बात के कारण मन में पछतावा हो रहा था । अचानक स्वामीजी कहने लगे :
‘‘बेटा ! यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे ।’’
एक कागज का टुकड़ा उसके हाथ में देते हुए स्वामीजी बोले : ‘‘इस पर हिन्दुस्तान का नक्शा बनाकर उसमें दिल्ली को दर्शाओ ।’’
जेठानंद ने आज्ञानुसार नक्शा बनाकर एक स्थान पर दिल्ली के लिए एक बिंदी अंकित कर दी और बोला : ‘‘यह दिल्ली का निशान है ।’’
स्वामीजी बोले : ‘‘जैसे इस बिंदी में चौबीस लाख आबादीवाले शहर (तत्कालीन) की भावना समायी हुई है, वैसे ही सारे ब्रह्माण्ड का रहस्य इस हृदयकमल में समाया हुआ है । अंतःकरण जितना अधिक पवित्र व निर्मल होता जायेगा, उतने ज्यादा रहस्य मालूम होते जायेंगे । स्वच्छ, पवित्र हृदय में ही धीमे-धीमे आवाजें सुनाई देती हैं, प्रकृति के रहस्य सुनाई पड़ते हैं, मगर उन आवाजों को सुनने के लिए दूसरे कान चाहिए । ये बाहर के कान काम नहीं आयेंगे । उनके लिए दुनियावी वृत्ति छोड़कर अंतर्मुखी वृत्ति धारण करनी चाहिए । बेटा ! नींद से उठाने के लिए भीतर घड़ी भी रखी हुई है, वह तीन बजे उठने में सहायता करती है । यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है, केवल हृदय को उज्ज्वल करने की आवश्यकता है । फिर तो भीतर अजीब रंग नजर आयेंगे तथा अपने सिवाय दूसरी कोई हस्ती नजर नहीं आयेगी । इस कारण अजीब आनंद प्राप्त होगा । बेटा ! यह एक हकीकत है ।’’
अब तो जेठानंद को समझ में आ गया था कि स्वामीजी को उसके मन की बात और तीन बजे रात को भीतर झाँककर देखनेवाली बात की सारी जानकारी है । वह लज्जित होने लगा, पर कुछ कह न सका ।
परम दयालु संत बोले : ‘‘बेटा ! घबराने की जरूरत नहीं है, ऐसा होता है । अभी भी समय गया नहीं है ।’’
संतों को समझने के लिए शंका नहीं श्रद्धा की आवश्यकता होती है । सांसारिक व्यक्ति उन्हें अपनी बुद्धि के तराजू में तौलने की कोशिश करता है और थाप खा जाता है । उदारहृदय संतों की यह परम करुणा ही है कि वे उसे सँभाल लेते हैं । शंकालु की शंका मिटा के उसे श्रद्धालु बनाकर श्रद्धा के परम फल आत्मानुभूति तक भी पहुँचा देते हैं । ऐसे परम कृपालु भगवत्पाद प्रातःस्मरणीय साँर्इं श्री लीलाशाहजी महाराज के चरणकमलों में हमारे अनंत प्रणाम ! ी